SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 987
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 898 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध भगवान महावीर ने इसी साधना के द्वारा योगों को अपने वश में किया था। या यों कहिए कि अपने योगों को धर्म एवं शुक्ल ध्यान में संलग्न किया था और आत्म-स्वरूप को पूर्णतया जानने के लिए उन्होंने अपने योगों को लोक के स्वरूप का चिन्तन करने में लगा दिया था; क्योंकि किसी पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को जानकर ही आत्मा लोकालोक के यथार्थ स्वरूप को जान सकता है। जो व्यक्ति एक पदार्थ के स्वरूप को यथार्थ रूप से नहीं जानता, वह संपूर्ण लोक के स्वरूप को भी नहीं जान सकता। अतः लोक के स्वरूप को जानने के लिए एक पदार्थ का संपूर्ण ज्ञान आवश्यक है। प्रत्येक पदार्थ द्रव्य और पर्याय युक्त है और लोक भी द्रव्य और पर्याय युक्त है। अतः पदार्थ के सभी रूपों का ज्ञान करने का अर्थ है, संपूर्ण लोक का ज्ञान करना और संपूर्ण लोक का ज्ञान करने का तात्पर्य है, पदार्थ को पूरी तरह जानना। इस तरह एक के ज्ञान में समस्त लोक का परिज्ञान और समस्त लोक के ज्ञान में एक का परिबोध संबद्ध है। इसलिए भगवान महावीर सदा लोक एवं आत्मा के स्वरूप का परिज्ञान करने के लिए चिन्तन में संलग्न रहते थे। इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- अकसाई विगय गेही य सद्दरूवेसु अमुच्छिए झाई। छउमत्थोवि परक्कममाणो, न पमायं सइंपि कुव्वित्था॥15॥ छाया-अकषायी विगत गृद्धिश्च शब्दरूपेषु अमूर्छितो ध्यायति। , छद्मस्थोपि पराक्रममाणः, न प्रमादं सकृदपि कृतवान्। पदार्थ-अकसाई-भगवान कषायों से रहित। य-और। विगयगेही-गृद्धिपन से रहित तथा। सद्दरूवेसु-शब्द रूपादि में। अमुच्छिए-अमूर्छित होकर। झाई-ध्यान करते थे। छउमत्थोवि-छद्मस्थ होने पर भी। परक्कममाणो-सदनुष्ठान में पराक्रम करते हुए उन्होंने। सइंपि-एक बार भी। पमायं-प्रमाद। न कुवित्था-नहीं किया। मूलार्थ-श्रमण भगवान महावीर, कषाय को छोड़कर, रस गृद्धि को त्यागकर, . 1. विशेष जानकारी के लिए जिज्ञासु मेरा लिखा हुआ 'अष्टांग योग' अवश्य पढ़ें।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy