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नवम अध्ययन, उद्देशक 4
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अन्य दर्शनों में राजयोग, हठयोग आदि प्रक्रियाएं मानी हैं। इससे कुछ काल के लिए मन का निरोध होता है। जब तक हठयोग की प्रक्रिया चलती है, तब तक मन रुका रहता है। उसकी प्रक्रिया समाप्त हुई कि मन फिर इधर-उधर उछल-कूद मचाने लगता है। इसलिए जैन दर्शन ने हठयोग आदि की साधना पर जोर न देकर सहज योग की बात कही। सहज योग कोई आगमिक प्रक्रिया का नाम नहीं है। आगम में योगों को या मन को वश में करने के लिए 5 समिति बताई हैं। इसका तात्पर्य इतना ही है कि साधक जिस समय जो क्रिया करे, उस समय तद्रूप बन जाए। यदि उसे चलना है तो उस समय अपने मन को चारों ओर के विचारों से हटाकर चलने में लगा दे; यहां तक कि चलते समय धार्मिक चिन्तन एवं स्वाध्याय आदि भी न करे। इस तरह अन्य क्रियाएं करते समय अपने योगों को उसमें लगा दे। जिस समय हलन-चलन की क्रिया नहीं कर रहा हो, उस समय अपने योगों को स्वाध्याय या ध्यान में लगा दे। इस तरह मन को प्रति समय किसी-न-किसी काम में लगाए रखे, तो फिर उसे इधर-उधर भागने का अवकाश नहीं मिलेगा। वह सहज ही चिन्तन में एकाग्र हो जाएगा। इसलिए इस साधना के लिए हमने सहज योग शब्द का प्रयोग किया है, क्योंकि इससे योगों को सहज रूप से एकाग्र किया जा सकता है।
इससे ये योग इतने सध जाते हैं कि निर्वाण के समय इनका निरोध करके आत्मा सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर लेती है। संसार में रोक रखने के लिए आत्मा के साथ 6 पर्याप्त मानी गई हैं-1-आहार पर्याप्त, 2-शरीर पर्याप्त, 3-इन्द्रिय पर्याप्त, 4-मन पर्याप्त, 5-भाषा पर्याप्त और 5-श्वासोच्छ्वास पर्याप्त। इनसे उन्मुक्त होकर ही आत्मा मुक्त हो सकता है। अतः निर्वाण के समय आत्मा इनका भी निरोध कर लेता है। परन्तु एकाएक तो निरोध हो नहीं जाता। इसलिए साधक के लिए बताया गया है कि वह निराहार होने के लिए तप के द्वारा आहार को कम करते हुए शरीर पर से ममत्व हटाते हुए, इन्द्रिय एवं मन को एकाग्र करते हुए मौन भाव को स्वीकार करके आत्मसाधना में लीन रहे और समिति-गुप्ति के द्वारा योगों को अपने वश में रखने का प्रयत्न करे। यह प्रक्रिया आत्मविकास के लिए उपयुक्त है। इसमें योगों के साथ किसी तरह की जबरदस्ती न करके उन्हें सहज भाव से आत्मसाधना में संलग्न किया जाता है।