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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
प्रस्तुत गाथा में आत्मविकास के लिए 3 साधन बताए हैं-आसन, ध्यान और ध्येय-समाधि। आसनों के द्वारा साधक मन को एकाग्र कर लेता है। जैन योग ग्रन्थों में कुछ आसन ध्यान योग्य बताए गए हैं। जैसे-1-पर्यंकासन, 2-अर्द्ध पर्यंकासन, 3-वज्रासन, 4 वीरासन, 5-सुखासन, 6-कमलासन और 7-कायोत्सर्ग। इसके बाद यह बताया गया है कि जिस आसन से सुख पूर्वक स्थित होकर मुनि मन को एकाग्र कर सके, वही सबसे श्रेष्ठ आसन है। ध्यान की विधि बताते हुए लिखा है कि अत्यन्त निश्चल सौम्यता युक्त एवं स्पन्दन से रहित दोनों नेत्रों को नाक के. सामने स्थिर करे । ध्यान के समय मुख ऐसा शान्त हो जैसे कि वह तालाब जिसमें मत्स्य सो रहे हों। भ्रू निश्चल एवं विकार हीन हों, दोनों ओष्ठ न अधिक खुले हों और न जोर से बन्द किए हुए हों। तात्पर्य यह है कि मुख पर किसी तरह की विकृति न हो, वह शान्त एवं प्रसन्न हो। ___जैन दर्शन में मन-वचन और शरीर को योग कहा है। इनकी शुभ वृत्तियों से चित्त की शुद्धि होती है और ध्यान, ध्याता एवं ध्येय इन तीनों की एकरूपता से समाधि प्राप्त होती है। इसी प्रारंभिक विकास का पदस्थ, पिंडस्थ, रूपस्थ और रूपातीत का नाम देकर इन्हें धर्मध्यान के अन्तर्गत माना है।
यह सत्य है कि धर्म ध्यान आत्म-विकास की प्रथम श्रेणी है और शुक्ल ध्यान चरम श्रेणी है। समस्त कर्मों का क्षय करके योगों का निरोध करते समय सर्वज्ञ पुरुष शुक्ल ध्यान में चतुर्थ भेद का ध्यान करके ही योगों का निरोध करके निर्वाण पद को प्राप्त करते हैं। उस स्थिति तक पहुंचने के लिए या उस योग्यता को प्राप्त करने के लिए पहले धर्मध्यान अत्यन्त आवश्यक है। 1. पर्यंकमर्द्धपर्यंक, वज्रं वीरासनं तथा। ____ सुखारविन्दपूर्वे च कायोत्सर्गश्च सम्मतः॥
-ज्ञानार्णव, 28, 10 2. येन-येन सुखासीना, विदध्युर्निश्चलं मनः। ___ तत्तदेव विधेयं स्यान्मुनिभिर्बन्धुरासनम्॥
-ज्ञानार्णव 28, 11 3. नासाग्रदेशविन्यस्ते, धत्ते नेत्रेऽतिनिश्चले। प्रसन्ने सौम्यतापन्ने, निष्पन्दे मन्दतारके॥
-ज्ञानार्णव 28, 35 4. भ्रू वल्ली विक्रियाहीनं, सुश्लिष्टाधरपल्लवम्। सुप्तमत्स्यह्रदप्राय, विदध्यान्मुखपंकजम्॥
-ज्ञानार्णव 28, 36