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नवम अध्ययन, उद्देशक 4
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ध्यान करते थे। आसणत्थे-आसनस्थ होकर। अकुक्कुए-मुखादि की चंचलता • को छोड़कर। झाणं-धर्म और शुक्ल ध्यान ध्याते थे। उड्ढं-ऊर्ध्व लोक।
अहे-अधोलोक। च-और। तिरियं-मध्यलोक में जो जीवादि पदार्थ हैं, वे उन द्रव्यों और उनकी पर्यायों की नित्यानित्यता का चिन्तन करते थे और। समाहिंअन्तःकरण की शुद्धि को। पेहमाणे-देखते हुए। अपडिन्ने-प्रतिज्ञा से रहित होकर ध्यान करते थे। - मूलार्थ-श्रमण भगवान महावीर, स्थिर आसन एवं स्थिर चित्त से धर्म और शुक्ल ध्यान ध्याते थे। वे उस ध्यान मुद्रा में ऊर्ध्व लोक, अधो लोक और तिर्यग् लोक में स्थित द्रव्य और उनकी पर्यायों के नित्यानित्य रूप का चिन्तन करते थे। वे अपने अन्तःकरण की शुद्धि को देखते हुए प्रतिज्ञा से रहित होकर सदा ध्यान एवं आत्मचिन्तन में संलग्न रहते थे। . हिन्दी-विवेचन ___ साधना में ध्यान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ध्यान के लिए सबसे पहली आवश्यकता आसन की है। ध्यान के लिए उत्कुट्क आसन, गोदुहिक आसन, वीरासन और पद्मासन आदि प्रसिद्ध हैं। इन आसनों से साधक शरीर को स्थिर करके मन को एकाग्र करके आत्म-चिन्तन में संलग्न होता है। भगवान महावीर भी दृढ़ आसन से धर्म एवं शुक्ल ध्यान ध्याते थे। इससे मन विषयों से हटकर आत्म-स्वरूप को समझने में लगता है, इससे कर्मों की निर्जरा होती है। ध्येय वस्तु द्रव्य और पर्याय रूप होती है। अतः वह नित्यानित्य होती है। यह हम पहले बता चुके हैं कि प्रत्येक वस्तु द्रव्य रूप से नित्य है और पर्याय रूप से अनित्य है। अतः ध्यान में उसके यथार्थ स्वरूप का चिन्तन किया जाता है।
पातंजल योग दर्शन में भी योग के आठ अंग माने गए हैं-1-यम, 2-नियम, 3-आसन, 4-प्राणायाम, 5-प्रत्याहार, 6-धारणा, 7-ध्यान और 8-समाधि। कुछ विचारक प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि को योग का अंग मानते हैं। कई साधक उत्साह, निश्चय, धैर्य, संतोष, तत्त्वदर्शन और देश त्याग को ही योग साधना मानते हैं और कोई मन के निरोध को ही सर्व सिद्धि का कारण मानता है।