SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 983
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 894 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध आहार-पानी देता है, परन्तु उसमें वह इतना ध्यान अवश्य रखता है कि अपने शरीर के पोषण में कहीं दूसरे प्राणियों का नाश न हो जाए। इस कारण वह सदा निर्दोष आहार ही स्वीकार करता है और समय पर सरस-नीरस जैसा भी आहार उपलब्ध हो, उसे समभावपूर्वक कर लेता है। वह उसमें हर्ष या शोक नहीं करता। ___ भगवान महावीर भी जैसा निर्दोष आहार उपलब्ध होता था, अनासक्त भाव से कर लेते थे। वे दधि आदि सरस पदार्थ मिलने पर हर्षित नहीं होते थे और कुल्माष आदि नीरस पदार्थ मिलने पर शोक नहीं करते थे। उनका उद्देश्य साधना को चालू रखने के लिए पेट को भरना था। इसलिए यथासमय जैसा भी शुद्ध आहार मिलता, उसीसे संतोष कर लेते थे। इससे रसना इन्द्रिय पर सहज ही विजय प्राप्त हो जाती है और इस वृत्ति से एक लाभ यह होता है कि साधु में दाता की निन्दा एवं प्रशंसा करने की भावना उबुध नहीं होती। जिसकी रसों में आसक्ति होती है, वह सरस आहार देने वाले की प्रशंसा एवं नीरस आहार देने वाले व्यक्ति की निन्दा करके पाप कर्म का बन्ध कर लेता है। इसलिए साधु को समय पर सरस एवं नीरस जैसा भी आहार उपलब्ध हो, उसे समभाव पूर्वक करना चाहिए। .. टीकाकार ने प्रस्तुत गाथा में आहार के विषय में प्रयुक्त शब्दों का निम्न अर्थ किया है-1-सुइयं दध्यादिना भक्तामार्दीकृतमपि तथा भूतम्। 2-सुक्कं-बल्लचणकादि। 3-सीयंपिंड-पर्युषित भक्तम्। 4-बुक्कसं-चिरन्तन धान्यौदनम्। 5-पुल्लगं-यवनिष्पावादि। इससे यह स्पष्ट होता है कि मुनि स्वाद के लिए आहार नहीं करता, केवल साधना के लिए शरीर को स्थिर रखना होता है, इस कारणं वह आहार करता है। अब साध्य प्राप्ति का उपाय बतलाते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम् - अवि झाइ से महावीरे, आसणत्थे अकुक्कुए झाणं। उड्ढे अहे तिरियं च पेहमाणे समाहिमपडिन्ने॥14॥ छाया- अपि ध्यायति सः महावीरः, आसनस्थः अकोत्कुचः ध्यानम् । ऊर्ध्वमधस्तिर्यग् च प्रेक्षमाणः समाधिं अप्रतिज्ञः ॥ पदार्थ-अवि-सम्भावनार्थ में है। से-वे। महावीरे-भगवान महावीर। झाइ
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy