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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध इस गाथा से यह भी स्पष्ट होता है कि भगवान ने जितना भी तप किया था, वह सब निदान-रहित किया था। उनके मन में स्वर्ग आदि की कोई आकांक्षा नहीं थी। उनका मुख्य उद्देश्य केवल कर्मों की निर्जरा करना था। उन्होंने आगम में तप आदि की साधना के लिए जो आदेश दिया है, उस पर पहले उन्होंने स्वयं आचरण किया। आगम में कहा गया है कि मुमुक्षु पुरुष को न इस लोक में सुखों की आकांक्षा से तप करना चाहिए, न परलोक में स्वर्ग आदि प्राप्त करने की अभिलाषा से तप करना चाहिए और न यशकीर्ति एवं मान-सम्मान की कामना रख कर तप करना चाहिए, परन्तु केवल कर्मों की निर्जरा के लिए तप करना चाहिए। इस तरह भगवान महावीर बिना किसी आकांक्षा के तप करते हुए रात-दिन धर्म एवं शुक्ल ध्यान में संलग्न रहते थे।
उनके तप का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- छतॄण एगया भुंजे, अदुवा अट्ठमेण दसमेणं।
दुवालसमेण एगया भुंजे, पेहमाणे समाहिं अपडिन्ने॥7॥ छाया- षष्ठेन एकदा भुंक्ते अथवा अष्टमेन दशमेन। .
द्वादशमेनैकदा भुक्तवान् प्रक्षमाणः समाधि अप्रतिज्ञः॥ . पदार्थ-एगया-एक बार। छठेण-दो उपवास के पारने में पर्युषित आहार। भुंजे-किया। अदुवा-अथवा। अट्ठमेण-तीन उपवास के पारने में पर्युषित आहार किया। एगया-एक बार। दसमेण-चार उपवास के पारने में और एक बार। दुवालसमेण-पांच उपवास के पारने में। भुंजे-बासी आहार किया। समाहिंइस तरह भगवान समाधि का। पेहमाणे-पर्यालोचन करते हुए। अपडिन्ने-निदान रहित क्रियानुष्ठान करते थे।
मूलार्थ-श्रमण भगवान महावीर कभी दो उपवास के पारने में पर्युषित आहार
1. चउब्विहा खलु तवसमाही भवइ, तंजहा-नो इह लोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, नो • परलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, नो कित्तिवन्नसद्दसिलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, नन्नत्थ निज्जरट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा चउत्थं पयं भवइ।
-दशवैकालिक सूत्र 9, 4 तवसमाहि। '