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नवम अध्ययन, उद्देशक 4
छाया - अपि साधिकं द्वयं मासं, षड्पिमासान् अथवा विहृतवान् । रात्रोपरात्रं अप्रतिज्ञः, पर्युषितं च एकदा भुक्तवान् ॥
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पदार्थ-अवि-सम्भावनार्थ में है, भगवान । साहिए दुवेमासे - दो मास से कुछ अधिक । छप्पिमासे ओवरायं - छह महीने तक रात - दिन बिना पानी पिए । . विहरित्था - विचरे । अदुवा - अथवा । एगया- एक बार । अपडिन्ने - पानी पीने की प्रतिज्ञा से रहित । अन्नगिलाय - बासी अन्न का जो रस चलित नहीं हुआ था । भुंजे-आहार किया।
मूलार्थ - भगवान महावीर ने दो मास से कुछ अधिक समय तक छह महीने अथवा दो महीने से लेकर छह महीने पर्यन्त बिना पानी पिये समय व्यतीत किया वे पानी पीने की प्रतिज्ञा से रहित होकर रात - दिन धर्म- ध्यान में संलग्न रहते थे । भगवान ने एक बार पर्युषित-वासी अन्न भी जिसका रस विकृत नहीं हुआ था, ग्रहण किया ।
हिन्दी - विवेचन '
प्रस्तुत गाथा से यह स्पष्ट होता है कि भगवान ने सर्वोत्कृष्ट छह महीने की तपश्चर्या की थी । भगवान ने इतनी लम्बी तपश्चर्या में पानी का भी सेवन नहीं किया । इससे स्पष्ट होता है कि भगवान ने जितनी तपश्चर्या की थी, उसमें पानी नहीं पिया था और इस तपसाधना के समय एक बार भगवान ने बासी अन्न- न- पहले दिन का बना हुआ आहार ग्रहण किया था । मूर्तिपूजक समाज का कहना है कि साधु को बासी आहार नहीं लेना चाहिए । परन्तु जब हम आगम का अनुशीलन करते हैं तो उसमें उसका कहीं भी निषेध नहीं मिलता। भगवान महावीर ने - जो महान् साधक थे, स्वयं बासी आहार ग्रहण किया है, ऐसी स्थिति में उसे अभक्ष्य कैसे कहा जा सकता है? यह ठीक है कि ऐसा बासी आहार साधु को नहीं लेना चाहिए, जिसका रस विकृत हो गया हो। परन्तु, जिसका वर्ण, गंध, रस आदि विकृत नहीं हुआ, उस आहार को अभक्ष्य कहना आगम - विरुद्ध है । कहने का तात्पर्य यह है कि इतने लम्बे तप के बाद भी भगवान इस तरह का रूखा-सूखा एवं बासी अन्न ग्रहण करते थे। इससे उनके मनोबल एवं त्यागनिष्ठ तथा अनासक्त जीवन का स्पष्ट परिचय मिलता है।