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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध अत्यावश्यक हुआ तो एक ही बार बोलते थे। वे शीत आदि की परवाह नहीं करते थे। सर्दी की ऋतु में भी छाया में ध्यान करते थे। इस तरह वे शरीर की चिन्ता न करते हुए सदा आत्म-चिन्तन में ही संलग्न रहते थे।
साधना में योगों का गोपन करना महत्त्वपूर्ण माना गया है। मन-वचन और काय इन तीनों योगों में मन सबसे अधिक सूक्ष्म और चंचल है। उसे वश में रखने के लिए काय और वचन योग को रोककर रखना आवश्यक है। वचन का समुचित गोपन होने पर मन को सहज ही रोका जा सकता है और मन आदि योगों का गोपन करने से आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करती है। ____ आगम में बताया है कि मन का गोपन करने से आत्मचिन्तन में एकाग्रता आती है और साधक संयम का आराधक होता है। वचन-गुप्ति से आत्मा निर्विकार होती है
और निर्विकारता से अध्यात्म योग की साधना में संलग्न होती है। कायगुप्ति से संवर की प्राप्ति होती है और उससे आश्रव-पापकर्म का आगमन रुकता है। इसी तरह मन-समधारणा से जीव एकाग्रता को जानता हुआ ज्ञान पर्याय को जानता है। उससे सम्यक्त्व का शोधन और मिथ्यात्व की निर्जरा करता है। वचन-समाधारणा से आत्मा दर्शन पर्याय को जानता है, उससे दर्शन की विशुद्धि करके सुलभ बोधित्व को प्राप्त करता है और दुर्लभ बोधिपन की निर्जरा करता है। काय-समाधारणा से जीव चारित्र पर्याय को जानता है और उससे विशुद्ध चारित्र को प्राप्त करता है और चार घातिक कर्मों का क्षय करके केवल ज्ञान को प्राप्त करता है। तत्पश्चात् अवशेष चार अंघातिक कर्मों का क्षय करके सिद्ध-बुद्ध हो जाता है, समस्त कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है। इस तरह योगों का गोपन करने से आत्मा निष्कर्म बन जाता है।
इस तरह भगवान महावीर भाषा को गोपन करते हुए एकाग्र मन से आत्मचिन्तन में संलग्न रहते थे। उनके चिन्तन की एकाग्रता एवं परीषहों की सहिष्णुता का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- आयावइय गिम्हाणं, अच्छइ उक्कुड्डए अभित्तावे।
अदु जावइत्थ लूहेणं ओयणमंथुकुम्मासेणं॥4॥
1. उत्तराध्ययन सूत्र, 29, 53-58