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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
हिन्दी-विवेचन ___ शरीर रोगों का घर है। इसमें अनेक रोग रहे हुए हैं। जब कभी वेदनीय कर्म के उदय से कोई रोग उदय में आता है तो लोग उसे उपशान्त करने के लिए अनुकूल औषध एवं पथ्य का सेवन करते हैं। परन्तु भगवान महावीर अस्वस्थ अवस्था में भी औषध का सेवन नहीं करते थे। वे स्वस्थ अवस्था में भी स्वल्प आहार करते थे। स्वल्प आहार के कारण उन्हें कोई रोग नहीं होता था। फिर भी कुत्तों के काटने या अनार्य लोगों के प्रहार से जो घाव आदि हो जाते थे, तो वे उसके लिए भी चिकित्सा नहीं करते थे। यदि कभी श्वास आदि का रोग हो जाता, तब भी वे औषध नहीं लेते थे। वे समस्त परीषहों एवं कष्टों को समभाव पूर्वक सहन करते थे और तप के द्वारा द्रव्य एवं भाव रोग को दूर करने का प्रयत्न करते थे।
इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- संसोहणं च वमणं च, गायब्भंगणं च सिणाणं च।
संवाहणं च न से कप्पे दन्तपक्खालणं च परिन्नाए॥2॥ छाया- संशोधनं च वमनं च, गात्राभ्यंगनं च स्नानं च। ..
संवाधनं च न तस्य कल्पते दन्तप्रक्षालनं च परिज्ञाय॥ पदार्थ-च-पुनः अर्थ में है। परिन्नाए-शरीर को अशुचि जानकर । से-भगवान महावीर को। संसोहणं-शरीर का संशोधन करना। च-पुनः। वमणं-वमन। च-और। गायब्भंगणं-शरीर को तेल आदि से मर्दन करना। च-और। सिणाणंस्नान करना। च-और। दन्तपक्खालणं-काष्ठादि से दांतों का प्रक्षालन करना। न कप्पे-नहीं कल्पता था, अर्थात् वे इन बातों का आचरण नहीं कर थे।
मूलार्थ-शरीर को अशुचिमय समझ कर भगवान रोग की शान्ति के लिए शरीर संशोधनार्थ, विरेचन लेना, वमन करना, शरीर पर तैलादि का मर्दन करना,
1. टीकाकार एवं चूर्णि कार इसमें एकमत हैं कि भगवान अपने शरीर के धातु क्षोभ के कारण प्रायः रोगांतक नहीं होते थे। कभी बाह्य कारणों से हो सकते थे। .
-आचाराङ्ग चूर्णि, पृष्ठ 321; टीका, पृष्ठ 284