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________________ 876 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध 13॥ उन्हें नष्ट करने में संलग्न रहे, जिससे वे कर्म फिर से उन्हें संतप्त न कर सकें। अस्तु, भगवान महावीर सदा कर्मों के बन्ध को रोकने का प्रयत्न करते रहे और तप से पूर्व कर्मों को क्षय करते रहे। इस तरह वे निष्कर्म बनने का प्रयत्न करते रहे। उनकी इस महासाधना का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- सूरो संगाम सीसे वा संवुड़े तत्थ से महावीरे। पड़िसेवमाणे फरुसाइं, अचले भगवं रीयित्था॥13॥ छाया- शूरः संग्रामशिरसि वा संवृतः तत्र स महावीरः। प्रतिसेवमानः च परुषान्, अचलः भगवान् रीयते स्म॥ पदार्थ-वा-जैसे। संगाम सीसे-संग्राम के आगे। सूरो-शूरवीर। संवुड़ेसंवृतांग होकर शस्त्रों से भेदन होता हुआ भी विजय प्राप्त करता है। इसी प्रकार से। महावीरे-भगवान महावीर । तत्थ-उन लाढ़ आदि देशों मे। पडिसेवमाणे-परीषह रूप, सेना से पीड़ित हुए। फरुसाइं-कठिन परीषहों को सहन करते हुए। भगवंभगवान। अचले-मेरु पर्वत के समान अटल एवं निष्कम्प रहकर। रीयित्था-मोक्षमार्ग में पराक्रम करते अथवा मेरु की भांति स्थिर चित्त से विचरते थे। मूलार्थ-जैसे कवच आदि से संवृत, शूर वीर पुरुष संग्राम में चारों ओर से शस्त्रादि का प्रहार होने पर भी आगे बढ़ता चला जाता है, उसी प्रकार श्रमण भगवान महावीर उस देश में कठिन-से-कठिन परीषहों के होने पर भी धैर्य रूप कवच से संवृत होकर मेरु पर्वत की तरह स्थिरचित्त होकर संयममार्ग पर गतिशील थे। हिन्दी-विवेचन प्रस्तुत गाथा में भगवान महावीर की तुलना एक वीर योद्धा से की गई है। इस में बताया गया है कि जैसे एक वीर योद्धा कवच से अपने शरीर को आवृत करके 'निर्भयता के साथ युद्धभूमि में प्रविष्ट हो जाता है, उसी प्रकार संवर के कवच से संवृत भगवान महावीर परीषहों से नहीं घबराते हुए लाढ़ देश में विचरे। वहां के निवासियों ने उन्हें अनेक तरह के कष्ट दिए; फिर भी वे साधना-पथ से विचलित नहीं हुए। ज्ञान, दर्शन एंव चारित्र की साधना में संलग्न रहे।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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