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नवम अध्ययन, उद्देशक 3
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इससे यह स्पष्ट होता है कि साधक को परीषहों से न घबराकर कर्मशत्रुओं को परास्त करने के लिए रत्नत्रय की साधना में संलग्न रहना चाहिए। साधना करते हुए यदि कष्ट उपस्थित हो तो उन्हें समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए।
अब प्रस्तुत उद्देशक का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- एस विहि अणुक्कतो, माहणेण मइमया।
बहुसो अपडिन्नेणं, भगवया एवं रीयंति॥14॥ त्तिबेमि छाया- एष विधिः अनुक्रान्तः, माहनेन मतिमता।
. बहुशः अप्रतिज्ञेन, भगवता एवं रीयंते॥ इति ब्रवीमि पदार्थ-अपडिन्ने-प्रतिज्ञा से रहित। भगवया-ऐश्वर्य युक्त। मइमयामतिमान.। माहणेण-भगवान महावीर ने। एस विहि-उक्तविधि का। बहुसो-अनेक बार। अणुक्कतो-आचरण किया और उनके द्वारा आचरित एवं उपदिष्ट इस विधि का अन्य साधक भी। एवं-इसी प्रकार। रीयंति-आचरण करते हैं। तिबेमिइस प्रकार मैं कहता हूँ। ____मूलार्थ-प्रतिज्ञा से रहित, ऐश्वर्य युक्त, परम मेधावी भगवान महावीर ने अनेक बार उक्त विधि का आचरण किया। उनके द्वारा आचरित एवं उपदिष्ट इस विधि का अन्य साधक भी इसी प्रकार आचरण करते हैं। ऐसा मैं कहता हूं। हिन्दी-विवेचन . प्रस्तुत गाथा का विवेचन प्रथम उद्देशक की अन्तिम गाथा में कर चुके हैं।
'त्तिबेमि' का विवेचन पूर्ववत् समझें।
॥ तृतीय उद्देशक समाप्त ॥
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