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नवम अध्ययन, उद्देशक 3
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* पदार्थ-उच्चालइय–वे अनार्य लोग भगवान को ऊपर उठाकर। निहणिंसु-उन्हें नीचे भूमि पर गिरा देते थे। अदुवा-अथवा। आसणाउ-गोदुहादि आसन से बैठे हुए भगवान को। खलइंसु-धक्का मार कर दूर फेंक देते थे। वोसट्ठकायपणयाऽसी-परन्तु भगवान अपने शरीर के ममत्व को छोड़कर परीषहों को सहन करने में सावधान थे। भगवं-भगवान। दुक्खसहे-परीषहजन्य दुःख को सहन करने वाले। अपडिन्ने-प्रतिज्ञा एवं निदान से रहित थे।
मूलार्थ-कभी-कभी अनार्य लोग भगवान को ऊंचे उठाकर नीचे फेंकते, कभी धक्का मारकर आसन से परे फेंक देते, परन्तु काया के ममत्व को त्यागकर परीषहों के सहन करने में सावधान हुए अप्रतिज्ञ और परीषहजन्य वेदनाओं को समतापूर्वक सहन करने वाले श्रमण भगवान महावीर, अपने ध्यान से च्युत नहीं हुए। हिन्दी-विवेचन
प्रस्तुत उभय गाथाओं में भगवान की सहनशीलता का वर्णन किया गया है। इनमें बताया गया है कि जहां भगवान ध्यानस्थ खड़े होते थे, वहां ये अनार्य लोग पहुंच जाते और उनके शरीर का मांस काट लेते, उन्हें पकड़ कर अनेक तरह की यातनाएंकष्ट देते। उन पर धूल-पत्थर आदि फेंकते। फिर भी उनके चिन्तन में बिलकुल अन्तर नहीं आता था। उनके चिन्तन का प्रवाह उसी रूप में प्रवहमान रहता था।
. इससे यह स्पष्ट होता है कि मुमुक्षु पुरुष को कैसी कठिन परीक्षा में उतरना पड़ता है। भगवान महावीर कठोर-से-कठोर परीक्षा में सफल रहे। वे सदा परीषहों पर विजय प्राप्त करते हुए आत्मविकास की ओर बढ़ते रहे। इसके लिए प्रस्तुत गाथा में उनके लिए 'दुक्खसहे' और 'अपडिन्ने' दो विशेषण दिए हैं। इनमें पहले विशेषण का अर्थ दुःख पर विजय पाने वाले और दूसरे का अर्थ है-प्रतिज्ञा रहित, अर्थात् भौतिक सुखों एवं आराम की कामना से रहित। . इससे स्पष्ट होता है कि भगवान महावीर समभावपूर्वक परीषहों को सहन करते थे और उन्होंने उनका कभी भी प्रतिकार नहीं किया। यह नितान्त सत्य है कि आत्मा स्वयं ही कर्म का बन्ध करता है और स्वयं ही उन्हें तोंड़ सकता है। दुनिया में व्यक्ति जो भी दुःख-सुख भोगता है, वे उसके स्वयं कृत कर्म के ही फल हैं। यह समझकर भगवान महावीर उनसे घबराए नहीं, अपितु समभावपूर्वक सहकर भगवान महावीर