SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 963
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 874 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध करते, उन्हें मारते-पीटते और अपने गांव से बाहर चले जाने को कहते। उनके द्वारा किए गए प्रहार एवं अपमान का भगवान कोई उत्तर नहीं देते, वे मौन भाव से उन परीषहों को सहन करते हुए विचरण करते थे। जब भगवान एकान्त स्थान में ध्यानस्थ होते तो उस समय लाढ़ देश के अनार्य लोग डण्डा लेकर वहां पहुंच जाते और भगवान को डण्डे से पीटते और इधर-उधर राह चलते लोगों को इकट्ठा करके हल्ला मचाते और कहते देखो यह विचित्र व्यक्ति कौन है? इस तरह से अज्ञानी लोग भगवान को अनेक कष्ट देते; फिर भी भगवान उन पर रोष नहीं करते थे। कितना धैर्य था उनके जीवन में एवं थी कितनी सहन शीलता! वास्तव में सहिष्णुता के द्वारा ही साधक परीषहों पर विजय प्राप्त करके निष्कर्म बन सकता है। भगवान की कष्टसहिष्णुता का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम् - मंसाणि छिन्नपुव्वाणि, उट्ठभिया एगया कायं। परिसहाई लुचिंसु, अदुवा पंसुणा उवकसुिं॥1॥ छाया- मांसानि छिन्नपूर्वाणि, अवष्टभ्य एकदा कायं। परीषहाः च अलुंचिषुः अथवा पांसुना अवकीर्णवन्तः॥ पदार्थ-मंसाणि छिन्नपुव्वाणि-वे अनार्य लोग उनके शरीर के मांस को काटते थे। एगया-किसी समय। कार्य-शरीर को। उट्ठभिया-पकड़कर। परिसहाई-नाना प्रकार के अन्य परीषह भी दिए। लुचिंसु-उन्हें दुःखित भी किया। अदुवा-अथवा। पंसुणा उवकसुि-उन पर धूल भी फेंकी। मूलार्थ-उस अनार्य देश में वहां के लोगों ने किसी समय ध्यानस्थ खड़े भगवान को पकड़ कर उनके शरीर के मांस को काटा। उन्हें नाना प्रकार के परीषहोपसर्गों से पीड़ित किया और उन पर धूल फेंकते रहे। मूलम् - उच्चालइय निहणिंसु, अदुवा आसणाउ खलइंसु। वोसट्ठकाय पणयाऽऽसी दुक्खसहे भगवं अपडिन्ने॥12॥ छाया- उत्क्षिप्य निहतवन्तः, अथवा आसनात् स्खलितवन्तः। व्युत्सृष्ट कायः प्रणतः आसीत्, दुःखसहः भगवान् अप्रतिज्ञः॥ .
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy