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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
7 – इन्द्रिय प्रतिकूल, 8 – दरिद्र, निर्धन, 9 - जीर्ण, फटा हुआ है, 10 - नष्ट हुआ
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पदार्थ' ।
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दूसरे प्रान्त शब्द की व्याख्या करते हुए वृत्तिकार ने भी यही बताया है कि तुच्छ भोजन एवं तुच्छ तृण, तख्त आदि का आसन मिलता था ।
इन सबसे लाढ़ देश के व्यक्ति अनार्य प्रतीत होते हैं। उस देश में भगवान के विचरण का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - लाढेहिं तस्सुवस्सग्गा बहवे जाणवया लूसिंसु । अह लूसि भत्ते कुक्कुरा तत्थ हिंहिंसु निवइसु ॥3॥ छाया - लाढेषु तस्योपसर्गाः बहवः जानपदाः लूषितवन्तः । अथ रुक्षदेश्यं भक्तं, कुर्कुराः तत्र जिहिंसु निपेतुः ॥
पदार्थ–लाढेहिं–लाढ़ देश में । तस्सुवस्सग्गा - उस भगवान को अनेक उपसर्ग हुए। बहवे - बहुत-से । जाणवया - लोग । लूसिंसु - उन्हें दांत आदि से काटते थे। अह - अन्य। लूह देसिए - रूक्ष । भत्ते - अन्न - पानी मिलता था और । तत्थ - उस देश में उन्हें । कुक्कुरा - कुत्ते भी । हिंहिंसु - काटते थे और वे भगवान को । निवइसु - काटने के लिए छोड़े जाते थे ।
मूलार्थ - लाढ़ देश में श्री भगवान को बहुत-से उपसर्ग हुए। बहुत-से लोगों ने उन्हें मारा-पीटा एवं दांतों तथा नखों से उनके शरीर को क्षत-विक्षत किया। उस देश में भगवान ने रूक्ष अन्न-पानी का सेवन किया। वहां पर कुत्तों ने भगवान को काटा। कई कुत्ते क्रोध में आकर भगवान को काटने के लिए दौड़ते थे।
1. पंत-त्रि (प्रान्त) 1. तुच्छ, नढ़ारू, खराब, हलकुं, रस बिना नुं । 2. जमता बाकी रहल खुराक, 3. धर्म भ्रष्ट थयेल, 4. खराब लक्षण, 5. अप शब्द-गा, 6. अन्तवर्ती, 7. इन्द्रिय प्रतिकूल, 5. दरिद्रनिर्धन, 9. जीर्ण, फाट्युः तूटयूं, 10. व्यापन्न - विनष्ट | - अर्धमागधी कोष, पृष्ठ 288 2. प्रान्तानि चासनाभि पांशुत्करशर्करालोष्टद्यु पचितानि च काष्ठाभिः च दुर्घटितान्यासेवितानि । -आचारांग वृति।
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