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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
स्वाभाविक है और उससे कष्ट का होना भी सहज ही समझ में आ जाता है। इसी तरह वस्त्र का उपयोग न करने के कारण भगवान को सर्दी एवं गर्मी का कष्ट भी होता था और मच्छर आदि भी डंक मारते थे। इस तरह भगवान को ये परीषह उत्पन्न होते; फिर भी भगवान अपने ध्यान से विचलित नहीं होते थे। वे समस्त परीषहों को समभाव-पूर्वक सहते हुए आत्म-चिन्तन में संलग्न रहते थे।
इतना ही नहीं, अपितु भगवान ने अनेक बार परीषहों को आमंत्रण भी दिया, अर्थात् वे कभी भी कष्टों से घबराए नहीं। परीषह सहने के लिए ही भगवान ने लाट-अनार्य देश में भी विहार किया। इस सम्बन्ध में सूत्रकार कहते हैं- .. मूलम् - अह दुच्चर लाढमचारी वज्जभूमिं च सुब्भभूमिं च।
पंतं सिज्जं सेविंसु आसणगाणि चेव पंताणि ॥2॥ छाया- अथ दुश्चरलाढं, चीर्णवान् वज्रभूमिं च शुभ्रभू मिंच।
प्रान्तां शय्यां सेवितवान् आसनानि चैव प्रान्तानि॥ . पदार्थ-अह-अथ भगवान। दुच्चर-दुश्चर दुर्गम्य। लाढं-लाढ़ नामक देश में। अचारी-विचरे थे। वज्ज भूमिं च-उस देश की वज्र और। सुब्मभूमिं चशुभ भूमि में और। पंत सिज्जं सेविंसु-प्रान्त शय्या का सेवन किया। च-और। एवनिश्चय अवधारणार्थ में। आसणगाणि पंताणि-प्रान्त आसन का सेवन किया।
मूलार्थ-भगवान ने दुश्चर लाढदेश की वज्र और शुभ्र भूमि में विहार किया और प्रान्तशय्या एवं प्रान्त-आसन का सेवन किया। . . .. हिन्दी-विवेचन
यह हम पहले देख चुके हैं कि भगवान महावीर के कर्म का बन्धन इस काल चक्र में हुए शेष सभी तीर्थंकरों से अधिक था। अतः उसे तोड़ने के लिए भगवान ने अनार्य देश में विहार किया। जिस दिन भगवान ने दीक्षा ली, उसी दिन एक ग्वाले ने भगवान पर चाबुक का प्रहार किया था। उस समय इंद्र ने आकर भगवान से प्रार्थना की थी कि प्रभो! साढ़े बारह वर्ष तक आपको देव-मनुष्यों द्वारा अनेक कष्ट मिलने वाले हैं, अतः आपकी आज्ञा हो तो मैं आपकी सेवा में रहूं। उस समय भगवान ने ,