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नवम अध्ययन : उपधान श्रुत तृतीय उद्देशक
द्वितीय उद्देशक में भगवान जिन बस्तियों में ठहरे थे, उनका वर्णन किया गया है । अब प्रस्तुत उद्देशक में उक्त स्थानों में भगवान को जो परीषह उत्पन्न हुए और भगवान ने जिस सहिष्णुता से उन्हें सहन किया, उसका वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - तणफासे सीयफासे य तेउफासे य दंसमसगे य । अहियासए सयासमिए, फासाइं विरूव रुवाइं॥1॥ छाया- तृणस्पर्शान् शीतस्पर्शांश्च तेजः स्पर्शांश्च दंशमशकांश्च । अध्यासयति सदासमितः, स्पर्शान् विरूपरूपान्॥
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पदार्थ-तणफासे-तृण स्पर्श । य - और। सीयफासे-शीत स्पर्श । य-और । तेउफासे - उष्ण स्पर्श । य-और। दंसमसगे - डांस - मच्छरादि के स्पर्श । य-और । विरूवरूवाइं – अन्य विविध प्रकार के । फासाइं - स्पर्शो को । सया - भगवान सदा । समिए-समिति-समितियों से युक्त हो कर । अहियासए - सहन करते थे ।
मूलार्थ-समिति - गुप्त से युक्त श्रमण भगवान महावीर तृणस्पर्श, शीतस्पर्श, उष्णस्पर्श, दंशमशकस्पर्श और नाना प्रकार के स्पर्शों को, सदा समभावपूर्वक सहन करते थे।
हिन्दी - विवेचन
प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि भगवान को तृण-स्पर्श, शीतस्पर्श आदि के परीषह उत्पन्न होते थे। भगवान ने दीक्षा लेते समय जो देवदूष्य वस्त्र ग्रहण किया था, उसके अतिरिक्त अन्य वस्त्र नहीं लिया । वह वस्त्र भी उनके पास 13 महीने तक रहा था। उसके रहते हुए भी भगवान उसे शरीर पर धारण नहीं करते थे । वे बैठने के लिए तृण के आसन का उपयोग करते थे । अतः वस्त्राभाव में तृण क