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________________ 862 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध प्रस्तुत उद्देशक का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- एस विहि अणुक्कन्तो माहणेण मइमया। __ बहुसो अपडिण्णेण भगवया एवं रीन्ति॥16॥ त्तिबेमि छाया- एष विधिः अनुक्रान्तः, माहनेन मतिमता। बहुशः अप्रतिज्ञेन भगवता एवं रीयन्ते॥ पदार्थ-मइमया-मतिमान। माहणेण-श्रमण-भगवान महावीर ने। एस-इस। विहि-विधि का। अणुक्कन्तो-आचरण किया। अपडिण्णेण-अप्रतिबन्ध विहारी होने के कारण। भगवया-भगवान ने। बहुसो-अनेक बार इस विधि का पालन किया। एवं-इसी प्रकार अन्य साधु भी। रीयन्ति-आत्मविकासार्थ इस विधि का आचरण करते हैं। तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूं। मूलार्थ-परम मेधावी भगवान महावीर ने निदान रहित होकर अनेक बार इस विधि का परिपालन किया और अपनी आत्मा का विकास करने के लिए अन्य साधु भी इसका आचरण करते हैं। ऐसा मैं कहता हूं। हिन्दी-विवेचन प्रस्तुत उद्देशक में बताई गई विधि का भगवान महावीर ने स्वयं पालन किया था। प्रथम उद्देशक के अन्त में भी उक्त गाथा दी गई है। अतः इसकी व्याख्या वहां की गई है। पाठक वहीं से देख लें। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत समझें। ॥ द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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