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नवम अध्ययन, उद्देशक 2
केवल ऊपर से आच्छादित स्थान में ठहर कर एवं सर्दी में बाहर आकर शीत परीषह को समभाव पूर्वक सहन करते थे ।
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हिन्दी - विवेचन
प्रस्तुत तीन गाथाओं में शीत परीषह का वर्णन किया गया है। इसमें बताया गया है कि जब हेमन्त ऋतु का पदार्पण होता है, सर्दी पड़ने लगती है, उस समय सब लोग कांपने लगते हैं । जब शीत काल की ठण्डी हवा चलने लगती है तो सब लोग घबरा कर गरम स्थानों में स्थित होने का प्रयत्न करते हैं । साधारण व्यक्तियों का तो कंहना ही क्या? साधु भी बर्फ पड़ने एवं ठण्डी तथा बर्फीली हवा के चलने पर निर्वात अनुकूल स्थानों में चले जाते। उस समय पार्श्वनाथ भगवान के शासन में विचरने वाले मुनि थे। वे सर्दी के मौसम में अनुकूल स्थान ढूंढ़ने का प्रयत्न करते थे। अन्य संप्रदायों या पंथ के साधु भी अनुकूल स्थानों की खोज में फिरते रहते थे ।
कई एक साधु शीत से बचने के लिए वस्त्र - चादर - कम्बल आदि रखते थे । कुछ अन्य मत के साधु अग्नि तापते थे । इस तरह वे शीत निवारण के लिए मकान, वस्त्र, गरम कम्बल एवं आग आदि का सहारा लेते थे । कहने का तात्पर्य यह है कि शीत परीषह को सहन करना कठिन है । कोई मुनि निर्दोष साधनों से यथाशक्य शीत से बचने का प्रयत्न करते हैं, तो जीवाजीव के ज्ञान से रहित अपने आप को साधु कहने वाले कुछ सन्न्यासी-तापस आदि सदोष - निर्दोष साधनों के विवेक से रहित होकर शीत से बचने का प्रयत्न करते हैं।
परन्तु ऐसे समय में भगवान महावीर शीत परीषह पर विजय प्राप्त करके अपने आत्म-चिन्तन में संलग्न रहते थे । हेमन्त काल में निर्वात - चारों ओर से घिरे हुए मकान में नहीं ठहरते थे और शीत निवारण के लिए अपने शरीर पर वस्त्र भी नहीं रखते थे। दीक्षा ग्रहण करते समय भगवान ने जो देवदूष्य वस्त्र स्वीकार किया था, वह उनके पास 13 महीने तक रहा। परन्तु इस काल में उन्होंने उसे अपने शरीर पर धारण नहीं किया। उसके बाद तो उन्होंने वस्त्र स्वीकार ही नहीं किया । इस तरह भगवान सर्दी से बचने के लिए न तो आवृत मकान ही ढूंढते, न वस्त्र धारण करते और न आग ही जलाते एवं तापते थे । भगवान महावीर तो क्या, कोई भी जैन मुनि शीत निवारण के लिए अग्नि का आरम्भ नहीं करते हैं ।