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________________ 860 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध मूलम्- संघाडओ पवेसिस्सामो एहाय समादहमाणा। पिहिया व सक्खामो अइदुक्खे हिमग संफासा॥14॥ . . छाया- संघाटीः प्रवेक्ष्यागः एधाञ्च समादहन्तः। पिहिताः वा शक्ष्यामः अतिदुःख हिम संस्पर्शाः॥ पदार्थ-हिमग संफासा-हिम जन्य शीत स्पर्श। अइदुक्खे-अत्यन्त दुःख देने वाला है, अतः कई साधु सोचते हैं कि । संघाडओ-शीत निवारण के लिए चादर आदि वस्त्र को। पवेसिस्सामो-पहनेंगे। य-और। एहायसमाहमाणा-वे जलाने के लिए काष्ठ ढूंढ़ते हैं। पिहिया व सक्खामो-कम्बल आदि वस्त्र पहनते हैं। मूलार्थ-शीत काल में जब ठंडी हवा चलती है एवं बर्फ गिरती है, उस समय सर्दी को सहन करना कठिन होता है। उस समय कई साधु यह सोचते हैं कि सर्दी से बचने के लिए वस्त्र पहनेंगे या बन्द मकान में ठहरेंगे। कई अन्य मत के साधु-सन्न्यासी शीत निवारणार्थ अग्नि जलाने के लिए ईंधन खोजते हैं एवं कम्बल धारण करते हैं। मूलम्- तंसि भगवं अपडिन्ने अहे बिगडे अहीयासए। दविए निक्खम्म एगया राओ ठाइए भगवं समियाए॥15॥ छाया- तस्मिन् भगवान अप्रतिज्ञः अधोविकटे अध्यासयति। _ द्राविकः निष्क्रम्य, एकदा रात्रौ स्थिती भगवान समतया। पदार्थ-भगवं-भगवान। तंसि-से शीतकाल में। अपडिन्ने-निर्वात-वायु-रहित स्थान की याचना रूप प्रतिज्ञा से रहित होकर। अहीयासए-शीत परीषह को समता पूर्वक सहन करते। अहे बिगडे-चारों तरफ की दीवारों से रहित केवल उपर से आच्छादित स्थान में ठहर कर। भगवं-भगवान। एगया-कभी। राओ-रात्रि में। निक्खम्म-बाहर निकल कर। ठाइए-वहां मूहूर्त मात्र ठहर कर। समियाए-फिर निवास स्थान में आकर। समभाव से शीत परीषह को सहन करते और। दविए-संयम-साधना में संलग्न रहते थे। मूलार्थ-श्रमण भगवान महावीर शीतकाल में वायरहित चारों तरफ से बन्दमकान में ठहरने की प्रतिज्ञा से रहित हो विचरते थे। वे चारों ओर दीवारों से रहित ।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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