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नवम अध्ययन, उद्देशक 2
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हिन्दी-विवेचन
प्रस्तुत गाथा में पूर्व गाथा की बात को ही दुहराया गया है। कुछ दुर्व्यसनी व्यक्तियों द्वारा पूछने पर कि तुम कौन हो? यहां क्यों खड़े हो? भगवान मौन रहते। यदि वे अधिक आग्रहपूर्वक पूछते और उन्हें उत्तर देना आवश्यक होता तो भगवान इतना ही कहते कि-"मैं भिक्षु हूं।" यदि इस पर भी वे सन्तुष्ट नहीं होते और भगवान को वहां से चले जाने के लिए कहते तो भगवान शांत भाव से चले जाते और यदि वे जाने के लिए नहीं कहते तो भगवान वहीं अपने ध्यान एवं चिन्तन में संलग्न रहते और उनके द्वारा दिए गए परीषहों को समभाव से सहते। साधक जिस स्थान में स्थित है, यदि वह स्थान अप्रीति का कारण बनता है तो साधक को मकान मालिक के यह कहने पर कि तुम यहां से चले जाओ, साधक को अन्य स्थान में चले जाना चाहिए और यदि वह स्थान अप्रीति का कारण नहीं बनता है तो उसे वहीं अपनी साधना में संलग्न रहते हुए परीषहों को सहन करना चाहिए।
भगवान की शीतकाल की साधना का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- जंसिप्पेगे पवेयन्ति सिसिरे मारुए पवायन्ते।
तंसिप्पेगे अणगारा हिमवाए निवायमेसन्ति॥13॥ 'छाया- यस्मिनप्येके प्रवेयन्ते (प्रवेदयन्ति) शिशिरे मारुते प्रवाति।
तस्मिनप्येके अनगाराः हिमवाते निवातमेषयन्ति ॥ पदार्थ-सिसिरे-शीतकाल में। सिप्पेगे-जिस समय शीत पड़ता है, तब कई एक व्यक्ति वस्त्रादि के अभाव के कारण। पवेयन्ति-कांपते रहते हैं, और। मारुए पवायन्ते-हिम के पड़ने से शीतल वायु चलता है। तंसिप्पेगे-उसमें कई एक। अणगारा-साधु । हिमवाय-हिम बर्फ के गिरने पर। निवाय मेसन्ति-हवा रहित स्थान की गवेषणा करते हैं।
मूलार्थ-जिस समय शीत पड़ता है, तब कई एक साधु कांपने लगते हैं। शिशिर काल में जब शीतल पवन चलता है, उस समय कई एक अनगार हिम के पड़ने पर निर्वात-वायुरहित स्थान की गवेषणा करते हैं।