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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
किसी भी संघर्ष का उत्तर न देकर आत्मचिन्तन में या अपने दोष देखने में लगा रहे तो उसके समस्त कार्य सहज ही सिद्ध हो जाते हैं। श्रमण महावीर भी साधनाकाल में बहुत कम बोलते थे।
किसी भी व्यक्ति के द्वारा अधिक आग्रहपूर्वक पूछने पर भगवान ने क्या उत्तर दिया, इस सम्बन्ध में सूत्रकार कहते हैंमूलम्- अयमंतरंसि को इत्थ? अहमंसित्ति भिक्खु आहटु। ..
____ अयमुत्तमे से धम्मे, तुसिणीए कसाइए झाइ॥12॥ छाया-अयमन्तः कोऽत्र! अहमस्मीति भिक्षुः आहृत्य।
अयमुत्तमः सधर्मः, तूष्णीकः कषायितेपिध्यायति ॥ पदार्थ-अयमंतरंसि-इस स्थान में यह। कोइत्थ?-कौन है? ऐसा पूछने पर भी भगवान मौन ही रहते। जब कोई विशेष कारण उपस्थित होता, तब वे केवल इतना कहते कि। अहमंसित्ति भिक्खु-मैं भिक्षु हूं। आहटु-यह सुनकर यदि वे कहते कि तुम यहां से चले जाओ तो भगवान उस जगह को अप्रीति का स्थान समझ कर वहां से चले जाते। और यदि वे जाने के लिए न कहकर केवल उन पर क्रोध करते तो भगवान मौन वृति से वहीं पर स्थित रहते और उनके द्वारा दिए गए उपसर्ग को समभाव पूर्वक सहन करते। से-वे। अयमुत्तमे धम्मे-यह समझ कर कि आत्म चिन्तन एवं सहिष्णुता सर्व श्रेष्ठ धर्म है, अतः वे। तुसिणीए-मौन रह कर। कसाइए-उनके क्रोधित होने पर भी। झाइ-ध्यान-आत्मचिन्तन से विचलित नहीं होते थे।
मूलार्थ-इस स्थान के भीतर कौन है? इस प्रकार वहां पर आए हुए व्यभिचारी व्यक्तियों के पूछने पर भगवान मौन रहते। यदि कोई विशेष कारण उपस्थित होता तो वे इतना ही कहते कि मैं भिक्षु हूं। इतना कहने से भी यदि वे उन्हें वहां से चले जाने को कहते तो भगवान उस स्थान को अप्रीति का कारण समझ कर वहां से अन्यत्र चले जाते। यदि वे व्यक्ति उन पर क्रुद्ध होकर उन्हें कष्ट देते तो भगवान समभाव पूर्वक उसे सहन करते और ध्यान रूप धर्म को सर्वोतम जानकर उन गृहस्थों के क्रुद्ध होने पर भी वे मौन रहते हुए अपने ध्यान से विचलित नहीं होते थे। .