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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
पदार्थ-स-भगवान महावीर। जणेहि-लोगों के द्वारा। पुच्छिसु-यह पूछने पर कि तुम कौन हो? यहां क्यों खड़े हो, तथा। एगया-कभी। राओ-रात्रि में। एगचर वि-अकेले घूमने वाले व्यभिचारी व्यक्तियों के उक्त प्रश्न पूछने पर भगवान। अव्वाहिए-उसका उत्तर नहीं देते, इस कारण वे। कसाइया-क्रोधित होकर उन्हें मारने लगते, फिर भी भगवान। समाहि-समाधि में। पेहमाणे-स्थित रहते। अपडिपन्ने-परन्तु, उनसे प्रतिशोध लेने की भावना नहीं रखते।
मूलार्थ-उन शून्य स्थानों में स्थित भगवान को राह चलते व्यक्ति एवं दुराचार का सेवन करने के लिए एकान्त स्थान की खोज करने वाले व्यभिचारी व्यक्ति पूछते कि तुम कौन हो? यहां क्यों खड़े हो? भगवान उनका कोई उत्तर नहीं . देते। इससे वे क्रुद्ध होकर उन्हें मारने-पीटने लगते, फिर भी भगवान शान्त भाव से परीषहों को सहन करते, परन्तु वे उनसे प्रतिशोध लेने की भावना नहीं रखते थे। हिन्दी-विवेचन
भगवान महावीर साधनाकाल में प्रायः शून्य घरों में ठहरते और वहीं ध्यान में संलग्न रहते। ऐसे स्थानों में प्रायः चोर या व्यभिचारी या जुआरी आदि व्यसनी लोग छिपा करते थे या छिपकर दुर्व्यसनों का सेवन किया करते थे। इसलिए कुछ लोग उन्हें चोर समझ कर मारते-पीटते एवं अनेक तरह से कष्ट देते। कुछ दुर्व्यसनी एवं व्यभिचारी व्यक्ति वहां अपनी दुर्वृत्ति का पोषण करने पहुंचते और वहां भगवान को खड़े देखकर उन्हें पूछते कि तुम कौन हो और यहां क्यों खड़े हो? भगवान उसका कोई उत्तर नहीं देते। तब वे उन्हें अपने दुराचार के पोषण में बाधक समझ कर आवेश में आकर उन्हें अनेक तरह के कष्ट देते। इस तरह अनेक व्यक्ति भगवान को. महान कष्ट देते थे। फिर भी वह महापुरुष सुमेरु पर्वत की तरह अपनी साधना में स्थित रहता। वचन और शरीर से तो क्या, मन से भी वे कभी विचलित नहीं हुए।
इस तरह कष्ट देने वाले प्राणियों पर भी मैत्री भाव रखते हुए भगवान घोर कष्टों को समभाव से सहते रहे और इस साधना से भगवान ने कर्म समूह का नाश कर दिया। अतः कर्मों की निर्जरा के लिए यह आवश्यक है कि साधक अपने ऊपर आने वाले परीषहों को समभाव से सहन करे। साधक को सदा-सर्वदा ध्यान रखना चाहिए . कि वह साधनाकाल में जहां तक संभव हो सके मौन रहे, परीषहों के समय सहिष्णु