SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 944
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 855 नवम अध्ययन, उद्देशक 2 मूलम्- अहियासए सया समिए फासाइं विरूवरूवाई। अरई रइं अभिभूय रीयइ माहणे अबहुवाइ॥10॥ छाया- अध्यासयति सदा समितः, स्पर्शान विरूपरूपान। अरतिरति अभिभूयते माहन, अबहुवादी॥ पदार्थ-विरूवरूवाइं-भगवान महावीर नाना प्रकार के। फासाइं-दुःख रूप स्पर्शों को। अहियासए-सहन करते थे। सयासमिए-वे सदा पांच समिति से युक्त रहते थे। अरइं-अरति और। रई-रति को। अभिभूय-पराभूत करके। माहणे-भगवान महावीर। अबहुवाई-प्रमाण से बोलने वाले थे और। रीयइ-संयमानुष्ठान में स्थित रहते थे। मूलार्थ-भगवान महावीर विविध परीषहों को सहन करते थे। वे सदा पांचों समिति से युक्त रहते थे। उन्होंने रति-अरति पर विजय प्राप्त कर ली थी। इस प्रकार संयमानुष्ठान में स्थित भगवान महावीर बहुत कम बोलते थे। हिन्दी-विवेचन . भगवान साधनाकाल में समिति-गुप्ति से संपन्न थे। न उन्हें भोगों के प्रति अनुराग था और न संयम में अरति थी। ये दोनों महादोष साधक को साधनापथ से भ्रष्ट करने वाले हैं और भगवान ने इन दोनों का सर्वथा त्याग कर दिया था। वे साधनाकाल में अत्यन्त कम बोलते थे। आहार की याचना करते समय या किसी से विहार में मार्ग पूछने के लिए या किसी विशेष परिस्थिति में-जैसे गोशालक द्वारा तिल के पौधे में कितने बीज या जीव हैं के प्रश्न का उत्तर देने तथा तेजोलब्धि के प्राप्त होने की विधि बताने के लिए ही उन्हें बोलना पड़ा था। इसके अतिरिक्त वे सदा मौन ही रहते थे और इस तरह साधना में संलग्न रहते हुए उन्होंने सब परीषहों पर विजय प्राप्त की। भगवान के ऊपर आए हुए उपसर्गों का विश्लेषण करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम् - स जणेहिं तत्थ पुच्छिसु एगचरा वि एगयाराओ। अव्वाहिय कसाइत्था पेहमाणे समाहिं अपडिपन्ने॥11॥ छाया- स जनस्तत्र (पृष्ठ) पप्रच्छुधएकचरा अपि एकरात्रो। अव्याहृते कषायिताः प्रेक्षमाणः समाछियप्रतिज्ञा।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy