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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
के लिए भगवान साधनापथ पर चल पड़े। जिस दिन भगवान ने दीक्षा ग्रहण की, उसी दिन से परीषहों की बिजलियां कड़कड़ाने लगीं। उनके उपसर्गों का प्रारम्भ एक ग्वाले की अज्ञानता से हुआ और अंत भी ग्वाले के हाथ से हुआ। पहला और अन्तिम कष्ट-प्रदाता ग्वाला था। बीच में अनार्य देश में मनुष्यों एवं देवों के द्वारा भी भगवान को अनेक कष्ट दिए गए। छह महीने के लगभग संगम देव ने भगवान को निरन्तर कष्ट दिया। एक रात्रि में उसने भगवान को 20 तरह के कष्ट दिये। फिर भी भगवान अपनी साधना में मेरु पर्वत की तरह अडिग रहे। भगवान का हृदय वज्र से भी अधिक कठोर था, अतः वह दुःखों की महा आग से भी पिघला नहीं और मक्खन से भी अधिक सुकोमल था। अतः वह पर दुःख को नहीं सह सका, कहा जाता है कि संगम के कष्टों से भगवान बिलकुल विचलित नहीं हुए। परन्तु अब वह जाने लगा तो भगवान के नेत्रों से भी आंसू की दो बूंदें दुलक पड़ीं। संगम के बढ़ते हुए कदम रुक गए और उसने भगवान से पूछा कि जब मैं आपको कष्ट दे रहा था, तब आपके मन में दुःख का संवेदन नहीं देखा। अब तो मैं जा रहा हूं, न तो आपको कष्ट दे रहा हूं
और न भविष्य में ही दूंगा, फिर आप के नेत्रों में आंसू की बूंदें क्यों? भगवान ने कहा-हे संगम! मुझे कष्टों का बिलकुल दुःख नहीं है। मुझे अनेक देव एवं मनुष्यों ने कष्ट दिए और उनसे मैं कभी नहीं घबराया, परन्तु जितने भी व्यक्ति मुझे कष्ट देने आए थे, वे अपने अपराधों को समझकर उनकी क्षमा याचना करके और अपने हृदय में सम्यग् ज्ञान की ज्योति जगा कर गए। परन्तु, तुम अपने दुष्ट कार्यों का बिना पश्चात्ताप किए और अपराध की क्षमा याचना किए बिना ही जा रहे हो। अभी तो तुम्हें ज्ञान नहीं है कि इसका परिणाम क्या आने वाला है, परन्तु, जब तुम्हें इन कर्मों का फल भोगना पड़ेगा, तब तुम्हारी क्या स्थिति होगी, तुम्हारी उस अनागत काल की स्थिति को देखकर मेरा मन दया से भर गया है। यह है भगवान महावीर की साधना, जो घोर कष्टों में भी मुसकराते हुए साधना के पथ पर बढ़ते रहे। न ग्वाले के प्रहार से घबराए, न चंडकौशिक जैसे महाविषधर से डरे और न संगम जैसे देवों के द्वारा प्रदत्त घोर कष्टों से विचलित हुए । वे सदा दुःखों की संतप्त दुपहरियों में मुसकराते हुए साधना-पथ पर बढ़ते रहे।
उनकी कष्टसहिष्णुता के विषय में सूत्रकार बताते हैं