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________________ नवम अध्ययन, उद्देशक 2 । उसका नाश करने में कोई समर्थ नहीं है । इस तरह आत्मा का चिन्तन करते हुए भगवान सभी कष्टों को समभाव पूर्वक सहते हुए कर्मों का नाश करने लगे। हिंस्र पशु-पक्षी एवं अधार्मिक व्यक्ति भी एकान्त स्थान पाकर उन्हें कष्ट पहुंचाते और कुछ कामुक स्त्रियां भी एकान्त स्थान पाकर उनसे विषय-पूर्ति की याचना करतीं। भगवान के द्वारा उनकी प्रार्थना के स्वीकार न करने पर वे उन्हें विभिन्न तरह के कष्ट देतीं। इस तरह उन पर अनेक अनुकूल एवं प्रतिकूल कष्ट आए। ऐसे घोर कष्टों को सहन करना साधारण व्यक्ति की सामर्थ्य से बाहर है। प्रतिकूल उपसर्गों की अपेक्षा अनुकूल उपसर्गों को सहन करना अत्यधिक कठिन है। साधारण साधक उनसे ख़बरा कर भाग खड़ा होता है । परन्तु भगवान महावीर समभाव से उन सब कष्टों पर विजय पाते रहे । इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम् - इहलोइयाइं परलोइयाइं भीमाइं अणेगरूवाइं । अवि सुमिदुभिगन्धाई सद्दाइं अणेगरूवाई ॥9॥ 853 छाया- ऐह लौकिकान् पारलौकिकान् भीमान् अनेकरूपान्। अपि सुरभिदुरभि गन्धान्, शब्दान् अनेकरूपान्॥ पदार्थ - इहलोइयाइं - भगवान इस लोक के - मनुष्य एवं तिर्यंच द्वारा दिए जाने वाले एवं । परलोइयाइं - देवों द्वारा दिए जाने वाले उपसर्गों को सहन करते थे, और। अपि—संभावनार्थक है । सुमिदुब्भिगन्धाई - सुवासित एवं दुर्वासित अथवा सुगन्धित एवं दुर्गन्धित पदार्थों को सूंघकर तथा । अणेग रुवाई सद्दाई - अनेक प्रकार के कटु एवं मधुर शब्दों को सुनकर भगवान हर्ष एवं शोक नहीं करते थे। मूलार्थ-भगवान महावीर देव, मनुष्य एवं पशु-पक्षियों द्वारा दिए गए उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन करते थे और सुगन्धित एवं दुर्गन्धित पदार्थों से आने वाली सुगन्ध एवं दुर्गन्ध तथा कटु एवं मधुर शब्द सुनकर उन पर हर्ष एवं शोक नहीं करते थे। हिन्दी - विवेचन भगवान महावीर ने साधनाकाल में सबसे अधिक कष्ट सहन किए। कहा जाता है कि 23 तीर्थंकरों के कर्म और भगवान महावीर के कर्म बराबर थे । इन्हें नष्ट करने 1
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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