________________
852
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
उन्हें । अणेगरूवा-अनेक तरह के। भीमा-भयंकर उपसर्ग। आसी-हुए। एगइएकाकी विचरण करने वाले भगवान का। कुचरा-चोरादि। उवचरंति-आकर कष्ट देते थे। य-पुनः। अदुवा-अथवा। सत्तिहत्था-सशस्त्र। गामरक्खा-ग्राम रक्षक-कोतवाल। अदु-अथवा। गामिया इत्थी-विषय-वासना से उन्मत्त हुई स्त्रियां। य-तथा। पुरिसा-पुरुष उन्हें। उवसग्गा-उपसर्ग-कष्ट देते थे।
मूलार्थ-उन शून्य स्थानों में जहां सर्पादि विषैले जन्तु एवं गृध्रादि मांसाहारी पक्षी रहते थे, उन्होंने भगवान महावीर को अनेक कष्ट दिए।
__इसके अतिरिक्त चोर, सशस्त्र कोतवाल, व्यभिचारी व्यक्ति, विषयोन्मत्त स्त्रियों एवं दुष्ट पुरुषों के द्वारा भी एकाकी विचरण करने वाले भगवान महावीर को अनेक उपसर्ग प्राप्त हुए। हिन्दी-विवेचन
प्रस्तुत गाथाओं में बताया गया है कि भगवान महावीर को साधनाकाल में अनेक कष्ट उत्पन्न हुए। भगवान महावीर प्रायः शून्य मकानों, जंगलों एवं श्मशानों में विचरते रहे हैं। शून्य घरों में सर्प, नेवले आदि हिंस्र जन्तुओं का निवास रहता ही है। अतः वे भगवान को डंक मारते, काटते और इसी तरह श्मशानों में गृध्रादि पक्षी उन पर चोंच मारते थे। इसके अतिरिक्त चोर-डाकू एवं धर्म-द्वेषी व्यक्तियों तथा व्यभिचारी पुरुषों एवं भगवान के सौंदर्य पर मुग्ध हुई कामातुर स्त्रियों ने भगवान को अनेक तरह के कष्ट दिए। फिर भी भगवान अपने ध्यान से विचलित नहीं हुएं। ___ साधना में स्थित साधक अपने शरीर एवं शरीर संबन्धी सुख-दुःख को भूल जाता है। ध्यानस्थ अवस्था में उसका चिन्तन आत्मा की ओर लगा रहता है, अतः . क्षुद्र जन्तुओं द्वारा दिए जाने वाले कष्ट को वह अनुभव नहीं करता। साधक के लिए बताया गया है कि ध्यान के समय यदि कोई जन्तु काट खाए तो उसे उस समय अपनी साधना से विचलित नहीं होना चाहिए। साधक को उत्पन्न होने वाले कष्ट को पूर्व अशुभ कर्म का कारण या निमित्त समझकर उसे समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए। क्योंकि इससे केवल शरीर को कष्ट पहुंचता है और यदि कोई शरीर का ही विनाश करने लगे, तब भी यही सोचना चाहिए कि ये मेरे शरीर का नाश कर रहे हैं, परन्तु मेरी आत्मा का नाश नहीं कर सकते। मेरी आत्मा शरीर से भिन्न है, अविनाशी