________________
850
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
निद्रा नहीं आती और भगवान इस कर्म को क्षय करने के लिए प्रयत्नशील थे। अतः जब भी निद्रा आने लगती थी, तब वे सावधान होकर जागृत होने का प्रयत्न करते। इससे स्पष्ट है कि उन्होंने कभी भी निद्रा लेने का प्रयत्न नहीं किया और कभी आने भी लगी तब भी वे उसमें जागृत ही रहे। द्रव्य से भले ही क्षण भर के लिए निद्रित हो गए हों, परन्तु भाव से वे सदा जागते रहे। क्योंकि ऐसा वर्णन आता है कि एक बार भगवान को क्षण मात्र के लिए झपकी-निद्रा आ गई थी और उसमें उन्होंने 10 स्वप्न देखे थे । परन्तु, उन्होंने निद्रा लेने का कभी प्रयत्न नहीं किया तथा द्रव्य निद्रा लेने की उनकी भावना न होने से इसे अनिद्रा ही कहा गया है। क्योंकि इस तरह आने वाली झपकी को भी वे सदा दूर करने का प्रयत्न करते रहे थे।
वे निद्रा को कैसे दूर करते थे, इसका वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- संबुझमाणे पुणरवि आसिंसु भगवं उठाए।
निक्खम एगया राओ बहि चंकमिया मुहत्तगं॥6॥ छाया- संबुध्यमानः पुनरपि, अवगच्छन् भगवान् उत्थाय।
निष्क्रम्य एकदा रात्रौ, बहिश्चंक्रम्य मुहूर्तकंम्॥ पदार्थ-पुणरवि-फिर भी। संबुझमाणे भगवं-निद्रा को प्रमाद रूप जानने वाले भगवान महावीर। उट्ठाए–संयमानुष्ठान में व्यवस्थित होकर। आसिंसु-अप्रमत्त भाव से विचरण करते थे। सावधानी रखते हुए भी यदि कभी झपकी आने लगती तो। एगया-कभी सर्दी की। राओ-रात में। बहि-बाहर निकल कर। मुहुत्तगं चंकमिया-मुहूर्त मात्र चंक्रमण करके पुनः ध्यान एवं आत्मचिन्तन में संलग्न हो जाते थे।
मूलार्थ-निद्रा रूप प्रमाद को संसार का कारण जानकर भगवान सदा अप्रमत्त भाव से संयम-साधना में संलग्न रहते थे। यदि कभी शीत काल में निद्रा आने लगती तो भगवान मुहूर्त मात्र के लिए बाहर निकल कर चंक्रमण करने लगते। वे थोड़ी देर घूम-फिर कर पुनः ध्यान एवं आत्म-चिन्तन में संलग्न हो जाते।
1. भगवती सूत्र