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________________ नवम अध्ययन, उद्देशक 2 849 शब्द उसके ताप को शान्त करने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, न कि किसी प्राणी को नाश करने के अर्थ में। अतः इस शब्द को लेकर उसके प्रयोग को सदोष कहना समझ का अभाव है। इतनी लम्बी विचार-चर्या के बाद हम इस निर्णय पर पहुंचे कि भगवान ने साधनाकाल में कभी भी प्रमाद का सेवन नहीं किया। वे सदा धर्म एवं शुक्ल ध्यान में ही संलग्न रहे और यह वर्णन किसी गणधर या आचार्य द्वारा नहीं किया गया है, प्रत्युत स्वयं भगवान ने इसका उल्लेख किया है। भगवान की अप्रमत्त साधना का और उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- निद्दपि नो पगामाए, सेवइ भगवं उठाए। जग्गावेइ य अप्पाणं इसिं साईय अपडिन्ने॥5॥ छाया- निद्रामपि न प्रकामतः, सेवते भगवान् उत्थाय। - जागरयति च आत्मानं, ईषच्छायी च अप्रतिज्ञः॥ पदार्थ-निइंपि-भगवान निद्रा का भी। नोपगामाए सेवइ-सेवन नहीं करते। यदि कभी निद्रा आने लगती तो। भगवं-भगवान। उट्ठाए-उठकर। अप्पाणं-अपनी आत्मा को। जग्गावेइ य-जागृत करते। इसिंसाईय-थोड़ी-सी निद्रा आने लगी कि अपनी आत्मा को अप्रमत भाव में लाकर, उसको उठाते, और। अपडिन्ने-निद्रा लेने की प्रतिज्ञा से भी रहित थे। - मूलार्थ-भगवान महावीर निद्रा का सेवन नहीं करते थे। यदि कभी उन्हें निद्रा . आती भी थी तो वे सावधान होकर आत्मा को जगाने का यत्न करते। वे निद्रा लेने की प्रतिज्ञा से भी रहित थे। हिन्दी-विवेचन प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि भगवान ने कभी भी निद्रा नहीं ली। क्योंकि यह भी प्रमाद का एक रूप है। इसलिए भगवान सदा इससे दूर रहने का प्रयत्न करते थे। निद्रा दर्शनावरणीय कर्म के उदय से आती है। इस कर्म का क्षय होने के बाद 1. इस बात को नवम अध्ययन के प्रारंभ में प्रतिज्ञा सूत्र की व्याख्या में स्पष्ट कर चुके हैं।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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