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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
उल्लेख नहीं है और इससे किसी प्राणी का अहित नहीं होता, इसलिए इसके प्रयोग में 5 क्रियाएं नहीं लगतीं ।
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यह ठीक है कि इसका लब्धि के रूप में उल्लेख किया गया है, परन्तु, इसका प्रयोग वैक्रिय, तेजस आदि लब्धियों की तरह नहीं होता । इसलिए यह कहना भी गलत है कि छद्मस्थ अवस्था में लब्धि फोड़ते हुए साधक दोष का सेवन करता है। जैसे अन्य लब्धियों का प्रयोग किया जाता है, उस तरह इसका प्रयोग नहीं किया जाता। आगमों में बताया गया है कि तीर्थंकर भगवान जहां विचरते हैं, उसके आस-पास लगभग 200 मील तक प्रायः अशान्ति एवं उपद्रव नहीं रहता । यह उनकी अनन्त शान्ति या शीतलता के परमाणुओं का ही प्रभाव है । सर्वज्ञ होने के बाद उनमें अनन्त-अनन्त शान्ति प्रकट हो जाती है और उनके जीवन में निकलने वाले शान्त परमाणु बहुत दूर तक प्रदेश में फैल हुए अशान्त परमाणुओं को शान्त कर देते हैं । फिर भी उनकी साधना सदोष नहीं मानी जाती। क्योंकि शीतलता एवं शान्ति आत्मा की विशुद्ध शक्ति है, न कि तेजोलब्धि की तरह आत्मगुणों से भिन्न शक्ति है। शीतलता आत्मा का गुण है और उष्णता आत्मा का विकार है । इसलिए दोनों को समान बताकर सदोष कहना बुद्धि का दिवालियापन प्रकट करना है।
यह भी कहा जाता है कि जब आग को पानी से बुझाते हैं तो उसमें दोष लगता है । तो यहां भगवान की शीतल लब्धि के प्रयोग से बाल तपस्वी द्वारा छोड़ी गई तेजोलब्धि मार्ग में ही प्रतिहत - नष्ट कर दी गई। इससे यह स्पष्ट होता है कि उस आग को नष्ट करना भी तो दोष युक्त है ? आग और तेजोलब्धि एक नहीं हैं; इसलिए यहां आग-पानी का उदाहरण उपयुक्त नहीं कहा जा सकता। किसी वस्तु में जलाने की शक्ति होने मात्र से वह वस्तु सजीव नहीं मानी जा सकती। सूर्य की प्रखर किरणों को उपयुक्त शीशे पर केन्द्रित कर लिया जाए और उसके नीचे घास या रूई रख दी जाए तो वह तुरन्त जल जाएगी। इसी तरह राजस्थान के रेगिस्तान में ग्रीष्म ऋतु के दोपहर में नंगे पैर चला जाए तो पैरों में फफोले चमक उठेंगे, परन्तु इतने मात्र से सूर्य की किरणों एवं उनसे तप्त रजकणों को - जो जलाने की भी शक्ति रखते हैं, सजीव नहीं कह सकते। इसी तरह तेजोलब्धि भी जलाने की शक्ति रखते हुए भी सजीव नहीं है। आगम में तेजोलब्धि के पुद्गलों को अजीव कहा है । इसलिए उनके प्रतिहत होने में किसी तरह की हिंसा नहीं होती । दूसरी बात यह है कि यहां प्रतिहत