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________________ नवम अध्ययन, उद्देशक 2 847 • वैक्रिय लब्धि एवं तेजोलब्धि का प्रयोग करने में आरम्भ-समारम्भ होता है। वैक्रिय लब्धि करते समय अनेक पुद्गलों को ग्रहण करने में सूक्ष्म हिंसा हो सकती है एवं मन में अहंकार आदि विकार भी जाग सकता है और तेजोलब्धि से तो प्रत्यक्ष रूप से प्राणियों को परिताप होता ही है। जिस व्यक्ति पर उसका प्रयोग किया जाता है, वह व्यक्ति जलकर भस्म भी हो जाता है और उस व्यक्ति तक पहुंचने के पथ में अनेक निरपराध स्थावर एवं त्रस जीवों की भी हिंसा होती है, अतः उसमें 5 क्रियाओं का लगना स्पष्ट है, परन्तु शीतल लब्धि तेजोलब्धि से भिन्न है। यह ठीक है कि यह तेजोलब्धि का ही एक रूप है, परन्तु इतना मात्र होने से वह सदोष नहीं कही जा सकती। जैसे हिंसा दया एवं अहिंसा का ही एक रूप है, अहिंसा हिंसा का दूसरा बाजू है या यों कहिए हिंसा अहिंसा का विपरीत रूप है। परन्तु, इतने मात्र से दोनों समान नहीं हो जाती हैं। हिंसा की तरह अहिंसा को हम सदोष नहीं कह सकते। हिंसा में दूसरे को परिताप देने की एवं नुकसान पहुंचाने की भावना होने से वह सदोष है, पापमय है। परन्तु अहिंसा में दूसरे की रक्षा करने की भावना रहती है, पर-प्राणी को शान्ति पहुंचाने की वृत्ति रहती है और यह सूर्य के उजाले की तरह स्पष्ट है कि परिताप, संतापं देने एवं उन्हें दूर करके शान्ति-सुख पहुंचाने का प्रयत्न एक समान नहीं हो सकता। यही बात तेजोलब्धि और शीतललब्धि के सम्बन्ध में है। तेजोलब्धि का प्रयोग क्रोध एवं आवेश के क्षणों में होता है और क्रोध एवं आवेश के समय मनुष्य का मन संतप्त एवं दग्ध रहता है, इसलिए तेजोलब्धि के परमाणु भी तप्त एवं प्रज्वलित निकलते हैं और वे जिस व्यक्ति पर पड़ते हैं, उसे संतप्त करते हैं, जलाकर भस्म कर देते हैं। परन्तु शीतल लेश्या शान्ति के क्षणों में प्रसारित की जाती है। उस समय साधक का मन दया, करुणा, क्षमा एवं शान्ति से आप्लावित होता है। उसके जीवन के कण-कण में प्रेम-स्नेह, वात्सल्य एवं विश्वबन्धुत्व की निर्मल भावना का प्रवाह प्रवाहित रहता है। इसलिए उसके जीवन से निकलने वाले परमाणु इतने शान्त एवं शीतल होते हैं कि जिस व्यक्ति पर वे गिरते हैं, उसे ताप-संताप से बचा लेते हैं। इसी अन्तर के कारण तेजोलब्धि को सदोष माना है और शीतल लब्धि को निर्दोष। क्योंकि शीतल लब्धि का प्रयोग करने वाले के लिए कहीं भी आलोचना करने का
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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