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________________ श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध आचारांग का यह कथन कि भगवान ने साढ़े बारह वर्ष और 15 दिन तक अप्रमत्त भाव से साधना की, यह प्रसंग भगवान महावीर के सर्वज्ञ होने के बाद का है और सर्वज्ञ पुरुष कभी भी किसी बात को छिपाते नहीं, घटा-बढ़ाकर या गलत रूप में कहते नहीं । वे अपने द्वारा किए गए दोष का भी उसी रूप में उल्लेख कर देते हैं, उनकी वाणी में अन्यथा बात नहीं होती, इसलिए हम कह सकते हैं कि भगवान ने साधनाकाल में प्रमाद का सेवन नहीं किया । 846 भगवान महावीर ने जिस समय गोशालक को बचाया, उस समय वे छद्मस्थ तो थे, परन्तु हम जैसे अल्पज्ञ नहीं थे । उस समय केवल ज्ञान के अतिरिक्त शेष 4 ज्ञान से युक्त 'थे और कल्पातीत थे । इसलिए उनके लिए कोई कल्प या मर्यादा नहीं थी । वे अपने विशिष्ट ज्ञान में जैसा उपयुक्त देखते, वैसा करते थे । अतः उनकी साधना की हम आलोचना करने की योग्यता नहीं रखते। क्योंकि उनमें चार ज्ञान थे और हममें दो ज्ञान हैं, वे भी विशुद्ध एवं पूर्ण नहीं हैं । इसलिए उनकी साधना के लिए जिसका उल्लेख उन्होंने सर्वज्ञ होने के बाद किया है, कुछ कहना अपनी अज्ञानता को ही प्रकट करना है । साधना का मूल सम्यक्त्व है । सम्यक्त्व के अभाव में ज्ञान एवं चारित्र मिथ्या कहलाता है और सम्यक्त्व के अस्तित्व का पता पांच कारणों से चलता है - 1 - सम, 2 – संवेग, 3 –निर्वेद, 4– अनुकम्पा और 5 - आस्तिक्य । इनमें अनुकम्पा को सम्यक्त्व का चौथा लक्षण बताया है। उसके अभाव में सम्यक्त्व का ही अस्तित्व नहीं रह पाता, तो श्रावकत्व एवं साधुत्व की साधना कैसे रह सकती है? ऐसी स्थिति में भगवान द्वारा की गई गोशालक की रक्षा को दोष युक्त कैसे कहा जा सकता है? क्योंकि भगवान ने किसी स्वार्थवश गोशालक का संरक्षण नहीं किया, अपितु अनुकम्पा एवं दयाभाव से उन्होंने उसको बचाया था। जब साधक के जीवन में अनुकम्पा का सागर लहराता है, उस समय वह व्यक्ति के मुख को नहीं देखता कि वह बचने वाला मेरा मित्र है या शत्रु है, कपूत है या सपूत है। ये सारे प्रश्न स्वार्थी जीवन में उठते हैं, साधक के लिए सपूत - कपूत, शत्रु-मित्र सब समान होते हैं और भगवान महावीर जैसे महान् साधक के हृदय में भेद की रेखा को अवकाश ही नहीं था । अतः उनकी अनुकम्पा एवं दया युक्त भावना को सदोष बताना साधना के स्वरूप को नहीं जानना है।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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