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नवम अध्ययन, उद्देशक 2
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12 वर्ष, 6 महीने और 15 दिन तक रात-दिन यत्ना पूर्वक निद्रा आदि प्रमादों से रहित होकर समाधि पूर्वक धर्म एवं शुक्ल ध्यान में संलग्न रहे। हिन्दी-विवेचन
भगवान महावीर ने 12 वर्ष 6 महीने और 15 दिन तक पूर्व सूत्रों में उल्लिखित बस्तियों में वर्षावास एवं रात्रिवास किया। इतने समय तक भगवान छद्मस्थ रहे और सदा आत्म-चिन्तन में संलग्न रहे। इतने लम्बे काल तक भगवान ने कभी भी निद्रा नहीं ली और न प्रमाद का सेवन ही किया। प्रमाद साधना का दोष है, इससे साधना दूषित होती है। इसलिए साधक को सदा सावधानी के साथ विवेक पूर्वक क्रिया करने का आदेश दिया गया है। आदेश ही नहीं, प्रत्युत भगवान महावीर ने अपने साधना-काल में अप्रमत्त रहकर साधक के सामने प्रमाद से दूर रहने का आदर्श रखा है। ___ यहां एक प्रश्न होता है कि भगवान के साधनाकाल में गोशालक उनके साथ रहने लगा और बाद में भगवान ने भी उसे अपना शिष्य मान लिया था। एक बार विहार करते समय उसने आतापना लेते हुए बाल सन्न्यासी का मखौल उड़ाया तथा उसका तिरस्कार किया। उस समय उस बाल तपस्वी को गोशालक पर क्रोध आ गया
और उसने उसे जलाकर भस्म करने के लिए उस पर तेजोलेश्या का प्रयोग किया। जब गोशालक ने दूर से ही तेजोलेश्या को अपनी ओर आते हुए देखा तो वह चिल्लाया
और अपनी रक्षा के लिए पुकारने लगा। उस समय भगवान ने गोशालक पर अनुकम्पा करके पीछे की ओर शान्त नजर से देखा और शीतल लेश्या फेंकी। उनकी साधना एवं अनन्त शान्ति के शीतल परमाणुओं ने तेजो लब्धि के संतप्त परमाणुओं को निस्तेज कर दिया। इस तरह गोशालक की रक्षा हो गई। कुछ लोगों का कहना है कि इसमें भगवान ने दो गलतियाँ की-1-कुपात्र गोशालक को बचाया जिसने सदा भगवान को परेशान किया और 2-लब्धि फोड़कर पाप एवं प्रमाद का सेवन किया। आगम में कहा है कि वैक्रिय लब्धि फोड़ने वाले साधक को 5 क्रियाएं लगती हैं। इसी तरह तेजो लब्धि का प्रयोग करने वाले को भी 5 क्रियाओं का दोष लगता है और भगवान ने भी शीतल लेश्या-तेजो लब्धि के ही दूसरे रूप का प्रयोग किया था। इसलिए उस समय उन्हें भी 5 क्रियाएं लगीं। अतः फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि भगवान ने साधनाकाल में प्रमाद का सेवन नहीं किया?
1. भ्रमविध्वंसन