SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 933
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 844 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध उपर्युक्त सभी स्थान एकान्त एवं निर्दोष होने के कारण साधना के लिए बहुत उपयुक्त माने गए हैं। यों तो साधक के लिए सभी स्थान उपयुक्त हैं। जिस साधक का अपने योगों पर अधिकार है, वह सर्वत्र अपने चिन्तन में संलग्न रह सकता है और जिसका अपने योगों पर अधिकार नहीं है, वह एकान्त स्थान में भी स्थिर नहीं रह सकता। इसलिए साधना में मकान की अपेक्षा चित्तवृत्ति की स्थिरता का महत्त्व अधिक है। फिर भी चित्तवृत्ति के ऊपर स्थान का भी कुछ असर होता है। महान साधक को वातावरण भी हिला नहीं सकता, परन्तु, सभी साधक भगवान महावीर जैसी साधना वाले नहीं थे और न अब हैं। उस युग के साधकों की साधना में भी परस्पर अन्तर था और आज के युग की साधना में भी अन्तर रहा हुआ है। इसलिए साधक को व्यवहार शुद्धि के लिए निर्दोष एवं विकारोत्पादक साधनों से रहित स्थान में ठहरना चाहिए। इसी वृत्ति का उपदेश देने के लिए समस्त विकारों एवं परीषहों पर विजय पाने में समर्थ भगवान महावीर चित्त को समाधि देने वाले एवं आत्म-चिन्तन को प्रगति देने वाले स्थानों में ठहरे। भगवान का आचार हमारे लिए जीवित शास्त्र है, जो हमारी साधना में स्फूर्ति एवं तेजस्विता लाने वाला है। . यह भी एक प्रश्न हो सकता है कि भगवान महावीर साधना काल में कब तक रहे? इसका उत्तर देते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- एएहिं मुणी सयणेहिं समणे आसि पतेरसवासे। , राइं दिवंपि जयमाणे अपमत्ते समाहिए झाइ॥4॥ छाया- एतेषु मुनिः शयनेषु श्रमणः आसीत् प्रत्रयोदशवर्षम्। रात्रिं दिनमपि यतमानः अप्रमत्तः समाहितः ध्यायति॥ पदार्थ-मुणी-श्रमण भगवान महावीर। एएहिं सयणेहिं-इन पूर्वोक्त बस्तियों में। समणे-तपस्या युक्त होकर। आसि-स्थित रहे। पतेरसवासे-बारह वर्ष, छह मास और 15 दिन। राइंदिवंपि-रात-दिन। जयमाणे-यतना पूर्वक। अपमत्ते-निद्रा आदि प्रमादों से रहित। समाहिए-समाधि युक्त होकर। झाइ-धर्म और शुक्ल ध्यान में संलग्न रहे। मूलार्थ-श्रमण भगवान महावीर इन पूर्वोक्त स्थानों में तप-साधना करते हुए .
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy