________________
843
नवम अध्ययन, उद्देशक 2
कहने का तात्पर्य इतना ही है कि भगवान ऐसे स्थानों में ठहरते थे कि जहां किसी को किसी तरह का कष्ट न हो और अपनी साधना भी चलती रहे । वे अपने ऊपर आने वाले समस्त परीषहों को समभावपूर्वक सह लेते थे, परन्तु अपने जीवन से किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं देते थे ।
जहां भगवान ठहरे थे, ऐसे और स्थानों को बताते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम् - आगन्तारे आरामागारे तह य नगरे व एगयावासो । सुसाणे सुण्णागारे वा रुक्खमूले व एगयावासो ॥3॥
छाया - आगन्तारे आरामागारे तथा च नगरे वा एकदावासः । श्मशाने शून्यागारे वा वृक्षमूले वा एकदावासः॥
पदार्थ - आगन्तारे - जहां पर श्रमजीवी लोग आकर ठहरते हों । आरामागारेबाग में जहां घर हो । तह तथा । नगरे-न रे - नगर में । य - पुनः । व-अथवा । एगयाएकदा । वासो-निवास किया । आ - अथवा । एगया - किसी समय । सुसाणे - श्मशान में। व-अथवा । सुण्णागारे - शून्यागार में । व- अथवा | रुक्खमूले - वृक्ष के नीचे । वासो - निवास किया ।
मूलार्थ - किसी समय भगवान महावीर ने जहां पर नगर और ग्राम से बाहर प्रसंगवशात् लोग आकर ठहरते हों, ऐसे स्थान में, उद्यान - गृह में, नगर में, श्मशान, शून्य गृह में और वृक्ष के मूल में निवास किया।
हिन्दी - विवेचन
प्रस्तुत गाथा में भी भगवान महावीर के ठहरने के स्थानों का वर्णन किया गया है। जहां श्रमजीवी लोग विश्राम करते हों, या बीमार व्यक्ति स्वच्छ वायु का सेवन करने के लिए कुछ समय के लिए आकर रहते हों, ऐसे स्थानों को 'आगन्तार' कहते हैं। ये स्थान प्रायः शहरों के बाहर होते हैं। क्योंकि शहरों के बाहर ही शुद्ध वायु उपलब्ध हो सकती है। इसके अतिरिक्त शहर के बाहर जो बाग-बगीचे होते हैं, जिनमें लोगों को एवं पशु-पक्षियों को विश्राम - आराम मिलता है, उन्हें आराम कहते हैं और उनमें बने हुए मकानों को आरामागार कहते हैं । इसके अतिरिक्त श्मशान, शून्य मकान एवं और कुछ नहीं तो वृक्ष की छाया तो यत्र-तत्र सर्वत्र सुलभ हो ही जाती है ।