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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध 3. प्रपा (प्याऊ)-जहां राहगीरों को पानी पिलाया जाता है, उसे प्रपा या प्याऊ कहते हैं। रात के समय यह स्थान प्रायः खाली रहता है और चिन्तन के लिए अनुकूल रहता है।
4. पण्यशाला (दुकानें)-जहां लोगों के जीवन के लिए आवश्यक खाद्य पदार्थ एवं वस्त्र आदि बेचे जाते हैं, उन्हें पण्यशाला करते हैं। ये स्थान भी रात में खाली रहते हैं। दुकानदार अपनी दुकान के-जिस में सामान भरा रहता है, उसका ताला लगा देता है, फिर दुकान के आगे का छप्पर या ब्राण्डा खाली पड़ा रहता है। अतः भगवान कई बार ऐसे स्थानों में भी ठहरे और ये स्थान भी स्त्री-पुरुष, पशु आदि से रहित होने के कारण साधु के लिए ठहरने योग्य हैं।
5. पणिय शाला-जहां पर कर्मकार लोग मेहनत करते हों, ऐसे स्थानों को पणिय-कर्म-शाला कहते हैं। लुहार, बढ़ई आदि के स्थान इसमें आ सकते हैं। ये स्थान भी एकान्त होने के कारण साधक के ठहरने योग्य हैं।
___6. पलाल पुंज-जहां पर पशुओं के लिए चार खंभों के सहारे घास का समूह एकत्रित किया जाता है, उसे पलाल पुंज कहते हैं। ये स्थान भी एकान्त होने के कारण साधक के ठहरने योग्य हैं। ___ इस तरह भगवान महावीर ने अपने साधना काल में ऐसे स्थानों में निवास किया। इससे साधु जीवन की कष्टसहिष्णुता एवं निःस्पृहता का तथा उस समय के लोगों की उदार मनोवृत्ति का पता लगता है। प्रत्येक गांव में जाने वाला व्यक्लि भूखाप्यासा एवं निराश्रित नहीं रहता था। सार्वजनिक स्थानों के अतिरिक्त लुहार एवं बढ़ई आदि श्रमजीवी लोगों की इतनी उद्योग शालाएं थीं कि कोई भी यात्री बिना रोक-टोक के विश्रान्ति कर लेता था। इससे उस युग के ऐतिहासिक रहन-सहन एवं उद्योग-धन्धे का भी पता चलता है। उस युग का रहन-सहन सादा था, मकान भी सादे होते थे। कुछ पूँजीपतियों के भवनों को छोड़कर साधारण लोग मिट्टी के बने साधारण घरों में ही रहते थे। औद्योगिक एवं कृषि कार्य अधिक था। गांवों के लोग प्रायः कृषि कर्म पर ही आधारित रहते थे। बड़े-बड़े वैश्य भी कृषि कर्म करते या करवाते थे। आगमों में अरण्यक आदि श्रावकों का वर्णन आता है कि उन्होंने अपनी-अपनी इच्छानुसार 500 हल या इससे कम-ज्यादा खेती करने की मर्यादा रखी थी। उस युग में कृषि कर्म को हेय नहीं माना जाता था।