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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
स्वयं ही ग्रहण किया और दूसरों के प्रति आचरण करने का उपदेश दिया, अतः। रियंति-मुमुक्षुजन कर्मों का क्षय करने के लिए इस क्रिया विधि का अनुष्ठान करके मोक्षमार्ग में गमन करते हैं। तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूं।
मूलार्थ-प्रबुद्ध साधक भगवान महावीर ने इस विहार-विचरणचर्या (विधि) को स्वीकार किया था और उन्होंने बिना निदान कर्म किसी प्रकार के भौतिक सुखों की कामना के बिना इस विधि का आचरण किया और दूसरे साधकों को भी इस पथ पर चलने का आदेश दिया। इसलिए मुमुक्ष पुरुष इसका आचरण करके मोक्ष-मार्ग पर कदम बढ़ाते हैं। हिन्दी-विवेचन
प्रस्तुत उद्देशक में साधक के लिए विचरण करने की जो विधि बताई है, वह केवल भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट ही नहीं है, अपितु उनके द्वारा आचरित भी है। इस गाथा में यह बताया है कि भगवान महावीर ने जिस साधना का उपदेश दिया है, उसे पहले उन्होंने स्वयं स्वीकार किया था। इससे यह स्पष्ट होता है कि साधना के द्वारा प्राप्त सर्वज्ञत्व से पहले भगवान महावीर भी एक साधारण प्राणी थे। वे सदा से किसी दैवी या ईश्वरी शक्ति के धारक नहीं थे। उन्होंने भी अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमण किया था। अनेकों बार नरक एवं निगोद के अनन्त दुःखों का संवदेन किया था। इस तरह संसार में भटकते हुए ज्ञान को प्राप्त किया और अपने आत्मस्वरूप को समझकर साधनापथ पर आगे बढ़े और उसीके द्वारा आत्मा का विकास करते हुए सर्वज्ञत्व एवं सिद्धत्व को प्राप्त किया। भगवान द्वारा आचरित साधना ही आत्मा को सिद्धत्व पद पर पहुंचाती है। जैन धर्म का पूर्ण विश्वास है कि प्रत्येक आत्मा में सिद्ध बनने की शक्ति है, प्रत्येक आत्मा सिद्धों के जैसी ही आत्मा है और साधनापथ को स्वीकार करके सिद्ध बन सकती है।
'त्तिबेमि' का विवेचन पूर्ववत् समझें।
॥ प्रथम उद्देशक समाप्त ॥