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नवम अध्ययन, उद्देशक 1
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प्रतिपन्न हुए । अणगारे - भगवन । तं वत्थं - उस वस्त्र को । वोसिज्ज - छोड़ कर, फिर । बाहूं - भुजाओं को । पसारितु - पसार कर । परक्कमे-चलते हैं। कंधमिस्कन्ध-कंधे पर । नो अवलम्बियाण - दोनों हाथ रखकर खड़े नहीं होते थे ।
मूलार्थ - शीतकाल में मार्ग में चलते हुए भगवान इन्द्रप्रदत्त वस्त्र को छोड़कर दोनों भुजायें फैला कर चलते थे, किन्तु शीत से सन्तप्त होकर अर्थात् शीत भय से भुजाओं का संकोच नहीं करते थे और न स्कन्ध में हस्तावलम्बन से खड़े होते थे । हिन्दी - विवेचन
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भगवान महावीर की साधना विशिष्ट साधना थी। भगवान ने अपने साधना-काल में अपवाद को स्थान ही नहीं दिया है । वे परीषहों पर सदा विजय पाते रहे, सर्दी के समय शीत के परीषह से घबराकर न तो कभी उन्होंने वस्त्र का उपयोग किया और न कभी शरीर को या हाथों को सिकोड़कर रखा, जब कि दीक्षा स्वीकार करने के पश्चात् 13 महीने तक उनके कन्धे पर देवदूष्य वस्त्र पड़ा रहा; फिर भी उन्होंने उससे शीत निवारण करने का प्रयत्न नहीं किया। इसके अतिरिक्त वे दोनों हाथों को फैला कर चलते थे और दोनों हाथों को फैला कर ही खड़े होते थे । न चलते समय उन्होंने कभी हाथों को सिकोड़कर रखा और न खड़े होते समय ही । उन्होंने खड़े होते समय न तो कभी हाथों को कन्धे पर रखा और न किसी अन्य अंग पर ही रखा। वे सदा अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहे और साधना में उत्पन्न होने वाले सब परीषहों को समभाव • पूर्वक सहते रहे। इससे स्पष्ट होता है कि उनका अपने योगों पर पूरा अधिकार था । प्रस्तुत उद्देशक का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - एस विहि अणुक्कन्तो माहणेण ममइया ।
बहुसो अपडिनेण भगवया एवं रियंति ॥ 23 ॥ त्तिबेमि ॥
छाया - एष विधिः अनुक्रान्तः, माहनेन मतिमता । बहुशः अप्रतिज्ञेन, भगवता एवं रीयन्ते ॥
पदार्थ - ममइया - ज्ञानवान । माहणेण - भगवान महावीर ने एस - इस । विहि-क्रियाविधि का । अणुक्कन्तो- स्वयं आचरण किया । बहुसो - अनेक प्रकार से। अपडिन्नेण-निदानकर्म से रहित । भगवया - भगवान ने । एवं - इस प्रकार से