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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
तिरियं-तिर्यक् मार्ग को। पेहाए-नहीं देखते थे, उसी प्रकार। अप्पिं पिट्ठओ-खड़े होकर पीछे को नहीं। पेहाए-देखते। अप्पंवुइए अपडिभाणी-किसी के बुलाने पर नहीं बोलते थे। जयमाणे-यतनाशील। पंथपेहि-मार्ग को देखते हुए। चरें-वे चलते थे।
मूलार्थ-श्रमण भगवान महावीर चलते हुए न तिर्यग् दिशा को देखते थे, न खड़े होकर पीछे को देखते थे और न मार्ग में किसी के पुकारने पर बोलते थे। किन्तु मौन वृत्ति से यत्ना पूर्वक मार्ग को देखते हुए चलते थे। हिन्दी-विवेचन
साधना का मूल उद्देश्य है-योगों की चंचलता को रोकना। इधर-उधर विषयों में परिभ्रमण करने वाले योगों को आत्म-चिन्तन में केन्द्रित करना। इसके लिए समिति
और गप्ति की साधना बताई है। समिति का परिपालन करते समय साधक अपने आवश्यक कार्य में प्रवृत्त होता है। इसलिए वह जिस कार्य में प्रवृत्त होता है, उसी में अपने योगों को केन्द्रित कर लेता है। योगों को आत्म-चिन्तन में, केन्द्रित करने एवं उनका निरोध करने का यह सबसे अच्छा उपाय है कि साधक उन्हें समिति-यत्नापूर्वक किए जाने वाले अपने आवश्यक कार्य में केंद्रित करे। भगवान महावीर ने ऐसा ही किया था। जब वे चलते थे तो अपनी चित्तवृत्ति एवं योगों को ईर्यापथ में केन्द्रित कर लेते थे। उस समय उनका इधर-उधर या पीछे को ध्यान नहीं जाता था। वे न कभी दाएं-बाएं देखते थे और न खड़े होकर पीछे को ही देखते थे और न मर्यादित भूमि से आगे को या ऊपर आकाश में ही देखते थे। और न वे किसी से संभाषण करते थे। किसी के पूछने पर कोई उत्तर नहीं देते हुए अपने मार्ग पर बढ़ते रहते थे।
उनके विचरण के सम्बन्ध के कुछ और विशेष बातें बताते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- सिसिरंसि अद्धपडिवन्ने तं वोसिज्ज वत्थमणगारे।
पसारित्तु बाहुं परक्कमे नो अवलम्बियाण कंधमि॥22॥ छाया- शिशिरे अध्वप्रतिपन्ने, तद् व्युत्सृज्य वस्त्रमनगारः।
प्रसार्य बाहू पराक्रमते, नो अवलंब्य स्कन्धे (तिष्ठति)॥ पदार्थ-सिसिरंसि-शीतकाल में-शिशिर ऋतु में। अद्धपडिवन्ने मार्ग में