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नवम अध्ययन, उद्देशक 1
ऐसी बात नहीं है; फिर भी सूत्रकार ने जो 'अप्रतिज्ञ' शब्द का प्रयोग किया है, उसका तात्पर्य इतना ही है कि सरस आहार की प्रतिज्ञा न करने या इच्छा न रखने से उन्हें अप्रतिज्ञ ही कहा है। क्योंकि शरीर का निर्वाह करने के लिए आहार लेना आवश्यक है । यदि सरस एवं प्रकाम भोजन ग्रहण करते हैं तो उसमें आसक्ति पैदा हो सकती है और अधिक परिमाण में खाने पर विकृति भी जागृत हो सकती है । परन्तु, नीरस एवं रुक्ष आहार में न आसक्ति होती है और न विकारों को उत्पन्न होने का अवसर मिलता है और नीरस आहार स्वाद एवं विकारों पर विजय प्राप्त करने का साधन है। छह महीने के लगभग लम्बे तप के बाद रुक्ष उड़द के बाकले खाना साधारण बात नहीं है। इसके लिए मन पर बहुत बड़ा अधिकार करना होता है। उस समय हमारा मन दूध आदि स्निग्ध एवं सुपाच्य आहार की इच्छा रखता है । उस समय रुक्ष उड़द के उबले हुए दाने और वह भी नमक-मिर्च से रहित स्वीकार करके समभाव पूर्वक खा लेना जबरदस्त साधक का ही काम है । इस तरह भगवान ने स्वाद एवं अपने योगों पर विजय प्राप्त कर ली थी। इसी कारण उनकी नीरस आहार की प्रतिज्ञा को प्रतिज्ञा नहीं माना है। क्योंकि, वह आहार स्वाद एवं शक्ति बढ़ाने के लिए नहीं, अपितु साधना में तेजस्विता लाने के लिए करते थे । इस अपेक्षा से 'अप्रतिज्ञ' शब्द उपयुक्त ही प्रतीत होता है ।
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भगवान महावीर का लक्ष्य शरीर पर नहीं, आत्मा पर था। वे सदा आत्मा का ही ध्यान रखते थे। यदि कभी आंख में तृण या रेत के कण आदि गिर जाते तो उन्हें निकालने का प्रयत्न नहीं करते थे और शरीर में खुजली आदि आती थी तो उसे भी नहीं खुजाते थे । वे शरीर की चिन्ता नहीं करते थे । शरीर की ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता था । वे सदा आत्म-चिन्तन में संलग्न रहते थे ।
उनके विचरण करने की विधि का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम् - अप्पं तिरियं पेहाए अप्पिं पिट्ठओ पेहाए ।
अप्पं वुइएपडिभाणी, पंथपेहि चरे जयमाणे ॥21॥ छाया - अल्पं तिरश्चीनं प्रेक्षते, अल्पंपृष्ठतः प्रेक्षते । अल्पं ब्रूते अप्रतिभाषी, पथि प्रक्षी चरेद् यतमानः ॥ पदार्थ-अप्पं-अल्प शब्द अभावार्थक है, अतः भगवान चलते हुए ।