________________
834
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
मूलम्- मायण्णे असणपाणस्स नाणुगिद्धरसेसु अपडिन्ने।
__ अच्छिंपि नो पमज्जिज्जा, नोविय कंडूयए मुणी गाय॥20॥ छाया- मात्रज्ञः अशनपानस्य, नानुगृद्धः रसेषु अप्रतिज्ञः।
अक्ष्यपि नो प्रमार्जयेत्, नापि च कण्डूयते मुनिः गात्रम्॥ ... पदार्थ-मुणी-भगवान महावीर। असणपाणस्स-अन्न-पानी के। मायन्नेपरिमाण को जानने वाले। रसेसु-रसों में। नाणुगिद्धे-मूर्छारहित । अपडिन्ने-आज मैं सिंह केसरादि मोदक गूंगा ऐसी प्रतिज्ञा से रहित-ऐसी प्रतिज्ञा न करने वाला। अच्छिंपि-आंख में रज आदि के पड़ जाने पर भी। नो पमज्जिज्जा-उसे दूर करने के लिए प्रमार्जन नहीं करते। य-और। गायं-गात्र को। नोवियकंडूयए-खाज आने पर भी खुजवाते नहीं थे। ___ मूलार्थ-श्रमण भगवान महावीर अन्न-पानी के परिमाण को जानने वाले थे, रसों में अमूर्छित थे, सरस आहार के लेने की प्रतिज्ञा से रहित थे। आंख में रज कण पड़ने पर भी उसे नहीं निकालते थे तथा खुजली आने' पर भी शरीर को नहीं
खुजलाते थे। हिन्दी-विवेचन
भगवान महावीर का जीवन उत्कृष्ट साधना का जीवन था। वे केवल साधना को चालू रखने के लिए ही आहार ग्रहण करते थे, स्वाद एवं शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाने के लिए नहीं। इसलिए उन्होंने कभी भी सरस एवं प्रकाम आहार की गवेषणा नहीं की। वे नीरस आहार ही स्वीकार करते थे और वह भी निरन्तर नहीं लेते थे। कभी चार-चार महीने का, कभी छह महीने का, कभी एक महीने का तो कभी पन्द्रह दिन का तप तो कभी और कुछ तप करते थे। इस तरह उनका जीवन तपोमय था। कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान ने कभी सरस एवं स्वादिष्ट आहार ग्रहण करने की प्रतिज्ञा नहीं की थी। इसलिए उन्हें अप्रतिज्ञ कहा है।
परन्तु, यह ‘अप्रतिज्ञ' शब्द सापेक्ष है। क्योंकि सरस आहार की प्रतिज्ञा नहीं, की, किन्तु, नीरस आहार की प्रतिज्ञा अवश्य की थी। जैसे उड़द के बाकले लेने की प्रतिज्ञा की थी। उन्होंने साधनाकाल में आहार के सम्बन्ध में कोई प्रतिज्ञा नहीं की,