SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 922
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नवम अध्ययन, उद्देशक 1 833 ___मूलार्थ-भगवान ने दूसरे व्यक्ति के वस्त्र का सेवन नहीं किया, और न दूसरे व्यक्ति के पात्र में भोजन ही किया। वे मान-अपमान को छोड़कर बिना किसी के सहारे भिक्षा के लिए जाते थे। हिन्दी-विवेचन भगवान महावीर ने अपने साधनाकाल में न तो किसी भी व्यक्ति के पात्र में भोजन किया और न दूसरे व्यक्ति के वस्त्र का उपयोग ही किया। यह हम देख चुके हैं कि भगवान ने दीक्षा लेते समय केवल एक देवदूष्य वस्त्र के अतिरिक्त कोई उपकरण स्वीकार नहीं किया था और वह देवदूष्य वस्त्र भी 13 महीने के बाद उनके कन्धे पर से गिर गया और जब तक वह उनके पास रहा, तब तक भी उन्होंने शीत आदि निवारण करने के लिए उसका उपयोग नहीं किया। आगम से यह भी स्पष्ट है कि वे अकेले ही दीक्षित हुए थे और साधनाकाल में भी अकेले ही रहे थे। बीच में कुछ काल के लिए गोशालक उनके साथ अवश्य रहा था। परन्तु, अधिकतर वे अकेले ही विचरते रहते थे। ऐसी स्थिति में किसी अन्य साधु के वस्त्र आदि स्वीकार करने या न करने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। . इससे स्पष्ट होता है कि भगवान ने अपने साधनाकाल में न किसी गृहस्थ के पात्र में भोजन किया और न सर्दी के मौसम में किसी गृहस्थ के वस्त्र को ही स्वीकार किया। उस युग में एवं वर्तमान में भी अन्य मत के साधु गृहस्थ के बर्तन में भोजन कर लेते हैं एवं गृहस्थ के वस्त्रों को भी अपने उपयोग में ले लेते हैं। परन्तु जैन साधु आज भी अपने एवं अपने से सम्बन्धित साधुओं के वस्त्र-पात्र के अतिरिक्त अन्य किसी के वस्त्र-पात्र को स्वीकार नहीं करते हैं। भगवान ने भिक्षा के लिए जाते समय किसी भी व्यक्ति का सहारा नहीं लिया। वे सदा मान-अपमान को छोड़कर भिक्षा के लिए जाते थे। वे किसी दानशाला या महा-भोजनशाला के सहारे भी अपना जीवन निर्वाह नहीं करते थे। क्योंकि इससे कई दीन-हीन व्यक्तियों की अन्तराय लगती है और वहां आहार भी निर्दोष नहीं मिलता है। इसलिए वे अदीनमन होकर भिक्षा के लिए जाते और जैसा भी निर्दोष आहार उपलब्ध होता, वही स्वीकार करके अपनी साधना में संलग्न रहते थे। उनकी साधना के सम्बन्ध में और उल्लेख करते सूत्रकार कहते हैं
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy