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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
स्वयं आहार आदि बनाए और न अपने लिए किसी से बनवाए और अपने (साधु के) निमित्त बनाकर या खरीदकर लाया हुआ आहार आदि स्वीकार भी न करे। परन्तु गृहस्थ के घर में अपने परिवार के लिए जो भोजन बना है, उसमें से अनासक्त भाव से सब दोषों को टालते हुए थोड़ा-सा आहार ग्रहण करे, जिससे गृहस्थ को बाद में किसी तरह का कष्ट न हो या अपने खाने के लिए कम रहने पर उसे पुनः न बनाना पड़े। इस तरह कई घरों से निर्दोष आहार लेकर साधु अपने शरीर का निर्वाह करे। परन्तु जिह्वा के स्वाद के लिए या शारीरिक पुष्टि आदि के लिए वह आधा कर्म आदि सदोष आहार न ले। जो आहार साधु के लिए बनाया जाता है, उसे आधाकर्म कहते हैं। उस आहार को ग्रहण करने से उसमें हुई हिंसा का पाप साधु को भी लगता है। अतः साधु अनासक्त भाव से निर्दोष आहार की गवेषणा करे।
भगवान महावीर ने केवल यह उपदेश ही नहीं दिया, प्रत्युत उन्होंने स्वयं इस नियम का परिपालन भी किया। उन्होंने कभी भी आधा कर्म आदि दोषों से युक्त आहार को स्वीकार नहीं किया। इस तरह भगवान सदा निर्दोष आहार की गवेषणा करते और अपनी मर्यादा के अनुसार निर्दोष आहार उपलब्ध होने पर ही उसे स्वीकार करते थे। इसी तरह भगवान ने अन्य सावध सदोष व्यापार एवं साधनों का भी सर्वथा त्याग कर दिया था। वे सारे पाप कर्मों से निवृत्त होकर सदा निर्दोष साधना में संलग्न रहते थे।
उनकी साधना के संबन्ध में उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं- ' मूलम्- णो सेवइ य परवत्थं परपाएवि से न भुंजित्था।
___ परिवज्जियाणं ओमाणं गच्छइ संखडिं असरणयाए॥19॥ छाया- नो सेवते च परवस्त्रं, परपात्रेपि स ना भुंक्ते।
परिवायमानं गच्छति, संखंडिं अशरणाय॥ पदार्थ-य-पुनः। परवत्थं-भगवान दूसरे के वस्त्र का। णो सेवइ-सेवन नहीं करते थे। परपाएवि-अन्य व्यक्ति के पात्र में भी। से-वे। न भुंजित्था-भोजन नहीं करते थे। ओमाणं-अतः वे अपमान को। परिवज्जियाणं-छोड़कर। संखडिंसंखडी में भोजनशाला में। असरणयाए-किसी के सहारे के बिना। गच्छइ-जाते हैं।