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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 1
है कि अज्ञानी मनुष्य बाल तपस्या आदि अज्ञान क्रिया से जिन पाप कर्मों को अनेक करोड़ों वर्षों में क्षय करता है, उतने कर्मों को तीन गुप्तियों से युक्त ज्ञानी पुरुष एक उच्छ्वास मात्र में क्षय कर देता है । अतः श्रुत ज्ञान मोक्ष का कारण होने से मंगल रूप है। यही कारण है कि सूत्रकार ने दूसरा मंगलाचरण न करके 'सुयं मे...' पद को मंगलाचरण के रूप में देकर, पुरातन परंपरा को सुरक्षित रखा है।
मंगलाचरण के विवेचन में हम इस बात का उल्लेख कर चुके हैं कि द्वादशांगी श्रमण भगवान महावीर की धर्मदेशना का संग्रह है। भगवान महावीर ने द्वादशांगी का अर्थरूप से प्रवचन किया था, परन्तु तीर्थंकर भगवान का वह प्रवचन जिस रूप में ग्रन्थबद्ध या सूत्रबद्ध हुआ है, उस शब्द रूप के प्रणेता गणधर हैं । आगमों में एवं अन्य ग्रन्थों में जहां यह कहा गया है कि जैनागम - द्वादशांगी तीर्थंकर -प्रणीत है, उसका तात्पर्य यह है कि तीर्थंकर उसके अर्थरूप से प्रणेता हैं, अर्थात् गणधरों द्वारा की गई सूत्ररचना का आधार तीर्थंकरों की अर्थरूप वाणी ही है । अतः इस अपेक्षा से जैनागमों को तीर्थंकर-प्रणीत कहा जाता है।
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द्वादशांगी वाणी में श्री आचारांग सूत्र का प्रथम स्थान है। श्रमण संस्कृति में आचार का महत्त्वपूर्ण स्थान है । वह कर्म-क्षय का महत्त्वपूर्ण साधन माना गया है। कर्म-बन्धन से सर्वथा मुक्त होने के लिए सम्यग् दर्शन और ज्ञान के साथ चारित्र - आचार का होना अनिवार्य है। आचरण के अभाव में मात्र ज्ञान से मुक्ति का मार्ग तय नहीं हो पाता। इसलिए आचरण को प्रमुख स्थान दिया गया है। नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु ने भी कहा है- आचार ही तीर्थंकरों के प्रवचन का सार है, मुक्ति का प्रधान कारण है। अतः पहले इसका अनुशीलन - परिशीलन करने के पश्चात् ही अन्य अंग
1. जं अन्नाणी कम्मं खवेइ, बहुयाहिं वासकोडीहिं, तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ उस्सासमित्तेनं ।
-प्रवचसनार
2. अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गन्थन्ति गणहरा निउणं । सासणस्स हियट्ठाए, तओ सुत्तं पवत्तेइ ॥
3. नन्दी सूत्र, 40
4. अंगाणं किं सारो ? आयारो ।
- आवश्यक निर्युक्ति, 192