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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध है कि पांच ज्ञानों में से श्रुतज्ञान को छोड़कर शेष चार ज्ञान स्थापने योग्य हैं। क्योंकि, पांच ज्ञानों में श्रुतज्ञान विशेष उपकारी है। श्रुतज्ञान को उपकारी इसलिए माना गया है कि तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित मार्ग का बोध श्रुतज्ञान के द्वारा होता है। क्योंकि, श्रुत-आगम में ही उनके प्रवचनों का संग्रह है। श्री भगवती सूत्र शतक 20, उद्देशक 8 में गौतम स्वामी के एक प्रश्न का उत्तर देते हुए, भगवान ने फरमाया है-"हे. गौतम! तीर्थंकर प्रवचन नहीं, निश्चित रूप से प्रावचनिक होते हैं, द्वादशांगी वाणी ही प्रवचन है" और इसी द्वादशांगी वाणी को 'श्रुत' कहते हैं। इसे सुन-पढ़ कर तथा तदनुसार आचरण करके जीव सिद्ध-बुद्ध एवं मुक्त होता है। सर्व कर्म-बन्धन से मुक्त-उन्मुक्त होने के लिए तीर्थंकरों की वाणी एक प्रकाशमान सर्चलाइट है। यही कारण है कि पांच ज्ञानों में श्रुतज्ञान को उपकारी माना गया है और वीतराग-वाणी होने के कारण श्रुतज्ञान मंगल है, अतः उसका मंगल रूप से ही उल्लेख किया गया है।
दशवैकालिक सूत्र में धर्म को सर्वोत्कृष्ट मंगल माना है । स्थानांग सूत्र में जहां दस धर्मों का वर्णन किया गया है, वहां श्रुत और चारित्र का धर्म रूप से उल्लेख किया गया है और टीकाकार ने इसका विवेचन करते हुए श्रुत और चारित्र धर्म को प्रमुखता दी है। क्योंकि, श्रुत धर्म मंगल रूप है।
__ आचारांग का पहला सूत्र है-"सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं"! इस सूत्र में श्रमण भगवान महावीर के वचनों को अंकित किया गया है। "श्रुतमिति श्रुतज्ञानं” मैंने सुना है, यह श्रुत ज्ञान है। यह हम पहले ही बता चुके हैं कि तीर्थंकरों की वाणी को श्रुत ज्ञान कहा गया है। प्रस्तुत सूत्र-मैंने सुना है कि उस भगवान-श्रमण भगवान महावीर ने ऐसा कहा है, यह तीर्थंकर भगवान की ही वाणी है। अतः प्रस्तुत सूत्र श्रुतज्ञान होने से मंगल रूप है। ऐसे देखा जाए तो सम्पूर्ण आगम-शास्त्र ही मंगल रूप है। क्योंकि, वह ज्ञान रूप है और ज्ञान से हेय और उपादेय का बोध होता है तथा साधक हेय वस्तुओं का त्याग कर के उपादेय को स्वीकार करता है। इससे कर्मों की निर्जरा होती है और एक दिन आत्मा कर्म-बन्धन से मुक्त हो जाता है। कहा भी
1. “धम्मो मंगलमुक्किटुं"-दशवैकालिक 1/1 2. स्थानांग सूत्र, स्थान 10