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________________ नवम अध्ययन, उद्देशक 1 827 और वे लैंगिक आधार को समाप्त करके अलिंग सिद्ध स्वरूप को भी प्राप्त कर सकते हैं। इस तरह लैंगिक आकार एवं योनि आदि की प्राप्ति कर्म के अनुसार होती है। जब व्यक्ति अपने ज्ञान एवं तप के द्वारा समस्त कर्मों का नाश कर देता है, तब वह जन्म-मरण एवं लैंगिक बन्धनों से सर्वथा मुक्त हो जाता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जब तक आत्मा में अज्ञान एवं राग-द्वेष है, तब तक वह कर्मों का बन्ध करती है और संसार-सागर में परिभ्रमण करती रहती है। अतः योनियों में परिभ्रमण करने का मूल कारण कर्म है। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- भगवं च एवमन्नेसिं, सोवहिए, हु लुप्पइ बाले। 'कम्मं च सव्वसो नच्चा तं पडियाइक्खे पावगं भगवं॥15॥ छाया- भगवान् च एवमन्यतो, सोपधिकं हु लुप्पते बालः। - कर्म च सर्वशः ज्ञात्वा तत् प्रत्याख्यातवान् पापकं भगवान्॥ पदार्थ-च-पुनः। भगवं-भगवान ने। एव मन्नेसिं-इस प्रकार जाना। हु-जिससे। सोवहिए-उपधि सहित ममत्व युक्त। बाले-अज्ञानी जीव। लुप्पइ-कर्म से पीड़ित होता है। च-पुनः। सव्वसो-सब प्रकार से। कम्म-कर्म के स्वरूप को। नच्चा-जानकर। भगवं-भगवान ने। तं-उस। पावगं-पापकर्म को। पडियाइक्खे-त्याग दिया। - मूलार्थ-भगवान ने यह जान लिया कि अज्ञानी आत्मा कर्म रूप उपधि से आबद्ध हो जाता है। अतः कर्म के स्वरूप को जानकर भगवान ने पापकर्म का परित्याग कर दिया। हिन्दी-विवेचन कर्म के कारण ही संसारी जीव सुख-दुःख का अनुभव करते हैं। वे विभिन्न योनियों में विभिन्न तरह की वेदनाओं का संवेदन करते हैं। अज्ञानी जीव अपने स्वरूप को भूल कर पापकर्म में आसक्त रहते हैं, इससे वे संसार में परिभ्रमण करते हैं। इसलिए भगवान ने कर्म के स्वरूप को समझकर उसका परित्याग कर दिया। इस तरह भगवान ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र से युक्त थे, क्योंकि कर्मों के स्वरूप को जानने
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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