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नवम अध्ययन, उद्देशक 1
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जानने का प्रयत्न करते हैं। जगदीश चन्द्र बोस ने यन्त्रों के द्वारा वनस्पति की सजीवता को स्पष्ट रूप से दिखाया था। परन्तु, इन सब साधनों की सहायता के बिना विज्ञान युग से 2600 वर्ष पहले भगवान महावीर ने अपने दिव्यज्ञान के द्वारा इन जीवों की सजीवता का प्रत्यक्षीकरण किया था।
भगवान की साधना के संबन्ध में वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- एयाइं सन्ति पडिलेहे, चित्तमंताइ से अभिन्नाय।
परिवज्जिय विहरित्था, इय संखाय से महावीरे॥13॥ छाया- एतानि सन्ति प्रत्युपेक्ष्य, चित्तमंतानि स अभिज्ञाय। - परिवर्ण्य विहृतवान्, इति संख्याय सः महावीरः॥
पदार्थ-एयाइं-ये पृथिवी आदि जीव। संति-हैं। पडिलेहे-इस प्रकार विचार कर तथा। चित्तमंताइ-उन्हें चेतना वाले। अभिन्नाय-जानकर। इय-इस प्रकार। संखायं-अधिगत कर। से-वह भगवान। महावीरे-महावीर । परिवज्जिय-इनके आरम्भ का त्याग कर के। विहरित्था-विचरते थे।
मूलार्थ-भगवान महावीर पृथ्वी आदि के जीवों को सचेतन जानकर और उनके स्वरूप को भली-भांति अधिगत करके उनके आरम्भ-समारम्भ से सर्वथा निवृत्त होकर विचरते थे। हिन्दी-विवेचन
श्रमण भगवान महावीर पृथ्वी आदि पांचों को सजीव मानते थे। उन्होंने अपने ज्ञान के द्वारा उनकी सजीवता का प्रत्यक्षीकरण किया था। आगम एवं अनुमान के द्वारा छद्मस्थ प्राणी भी उनमें सजीवता की सत्ता का अनुभव कर सकता है, परन्तु, वह सजीवता को प्रत्यक्ष नहीं देख सकता। उसे प्रत्यक्ष देखने की शक्ति सर्वज्ञ पुरुषों में ही है।
जैन दर्शन में पृथ्वी आदि को सचेतन और अचेतन दोनों तरह का माना है। इस सम्बन्ध में हम प्रथम अध्ययन में विस्तार से वर्णन कर चुके हैं। इन स्थावर जीवों में संख्यात, असंख्यात एवं अनन्त जीव पाए जाते हैं।
जीवों की विचित्रता का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं