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नवम अध्ययन, उद्देशक 1
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अनुभव करके दुःखित ही होते थे। वे हर्ष और शोक से सर्वथा रहित होकर आत्म-साधना में संलग्न रहते थे। क्योंकि वे भली-भांति जानते थे कि विषय-वासना मोह का कारण है और मोह समस्त कर्मों में प्रबल है, वह सब कर्मों का राजा है। उसका नाश करने पर शेष कर्मों का नाश सुगमता से किया जा सकता है। यही कारण है कि सर्वज्ञता को प्राप्त करने वाले महापुरुष सबसे पहले मोहनीय कर्म का क्षय करते हैं, उसके बाद शेष तीन घातिक कर्मों का नाश करते हैं। अतः भगवान महावीर विषय-विकारों को मोह बढ़ाने का कारण समझकर उनमें रस नहीं लेते थे। वे उस समय भी अपनी आत्म-साधना में ही संलग्न रहते थे।
भगवान की निःस्पृहता का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैमूलम्- अवि साहिये दुवे वासे सीओदं अभोच्चा निक्खंते।
एगत्तगए पिहियच्चे से अहिन्नाय दंसणे संतेण॥11॥ छाया- अपि साधिके द्वे वर्षे, शीतोदकमभुक्त्वा निष्क्रान्तः।
एकत्वगतः पिहितार्चः सः अभिज्ञातदर्शनः शान्तः॥ पदार्थ-अवि-अपि-संभावनार्थक है। साहिये दुवे वासे-दो वर्ष से कुछ अधिक समय तक। सीओदं-शीतोदक-सचित्त पानी। अभोच्चा-पीए बिना। निक्खंते-दीक्षित हुए। एगत्तगए-जिन्होंने एकत्व भावना से अपने अन्तःकरण को भावित किया। पिहियच्चे-क्रोध की ज्वाला को शान्त कर लिया। से-वह। अंहिन्नायदंसणे-ज्ञान दर्शन से युक्त भगवान महावीर । सन्ते-इन्द्रिय और नोइन्द्रिय मन को दमन करने के कारण शान्तचित्तवाले भगवान विचरते थे। ___ मूलार्थ-दो वर्ष से कुछ अधिक समय तक गृहस्थ जीवन में रहते हुए सचित्त जल को पिए बिना दीक्षित हुए थे और जिन्होंने एकत्व भावना में संलग्न रहते हुए क्रोध की ज्वाला को शान्त किया था, ऐसे ज्ञान दर्शन से युक्त, शुद्ध अन्तःकरण वाले और शान्तचित्तवाले भगवान महावीर विचरते थे। हिन्दी-विवेचन
भगवान महावीर का जीवन सदा से त्यागनिष्ठ जीवन रहा है। जब वे गर्भ में आए, तब उन्होंने सोचा कि हाथ-पैर आदि के संचरण से माता को पीड़ा होगी।