________________
820
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
द्वन्द्व-युद्ध होता तो भी भगवान उस ओर ध्यान नहीं देते थे। क्योंकि, इससे राग-द्वेष की भावना उत्पन्न होती है और राग-द्वेष से कर्मबन्धन होता है। अतः भगवान समस्त प्रिय-अप्रिय विषयों की ओर ध्यान नहीं देते हुए तथा अनुकूल व प्रतिकूल सभी परीषहों को समभावपूर्वक सहते हुए आत्म-साधना में संलग्न रहते थे।
उनकी सहिष्णुता का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम् - गढिए मिहुकहासु समयंमि, नायसुए विसोगे अदक्खु।
एयाइ से उरालाइं गच्छइ, नायपुत्ते असरणयाए॥10॥ छाया- ग्रथितः मिथः कथासु समये ज्ञातपुत्रः विशोकः अद्राक्षीत्।
एतानि स उरालानि, गच्छति, ज्ञातपुत्रः अशरणाय॥ पदार्थ-समयंमि-उस समय। नायसुए-ज्ञातपुत्र-भगवान महावीर। गढिए मिहुकहासु-लोगों को विषय-विकारं से युक्त कथाएं करते हुए देखकर भी भगवान। विसोगे-हर्ष एवं शोक से रहित होकर। अदक्खु-उन्हें देखते थे, और। से-वह। नायपुत्ते-भगवान महावीर। एयाइं उरालाइं-इन अनुकूल एवं प्रतिकूल उत्कृष्ट परीषहों को सहन करते हुए। असरणयाए-दुःखों का स्मरण न करते हुए या दुःखों से घबरा कर दूसरे की शरण न लेते हुए। गच्छइ-संयम मार्ग पर विचरण करते थे।
मूलार्थ-जहां कहीं लोग शृङ्गार रस युक्त कथाएं करते थे या स्त्रियां परस्पर कामोत्पादक कथाओं में प्रवृत्त होतीं, तो उन्हें देखकर भगवान महावीर के मन में हर्ष एवं शोक उत्पन्न नहीं होता था। अनुकूल एवं प्रतिकूल कैसा भी उत्कृष्ट परीषह उत्पन्न हो, किन्तु फिर भी वे दीनभाव से या दुःखित होकर किसी की शरण स्वीकार नहीं करते थे, अपितु समभावपूर्वक संयम-साधना में संलग्न रहते थे। हिन्दी-विवेचन
भगवान महावीर के सामने कई तरह के प्रसंग आते थे। वे जब कभी भी शहर या गांव के मध्य में ठहरते तो वहां स्त्री-पुरुषों की पारस्परिक कामोत्तेजक बातें भी होती थीं, परन्तु भगवान उनकी बातों की ओर ध्यान नहीं देते थे। वे विषय-विकार बढ़ाने वाली बातों को सुनकर न तो हर्षित होते थे और न विषयों के अभाव का