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________________ नवम अध्ययन, उद्देशक 1 आत्मा के साथ संलग्न होता है, तो हजारों विषयों के सामने आने पर भी हमें उनकी अनुभूति नहीं होती। अस्तु, मन एवं परिणामों की धारा को विषयों के चिन्तन से रोकने के लिए आत्म-चिन्तन महत्त्वपूर्ण साधन है। भगवान महावीर का मन अपनी आत्मा में इतना संलग्न था कि गृहस्थों की बातों का उनपर कोई असर नहीं होता था। वे उनके किसी भी प्रश्न का उत्तर-प्रत्युत्तर नहीं देते थे। इससे स्पष्ट होता है कि उनका चिन्तन जंगल एवं शहर में समान रूप से चलता था। किसी भी तरह के बाह्य वातावरण का उनके मन पर असर नहीं होता था। इस तरह वे गृहस्थों के मध्य में रहते हुए भी मौन रहते थे और सदा आत्मचिन्तन में संलग्न रहते थे। भगवान की सहिष्णुता का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्- णो सुकरमेयमेगेसिं, नाभिभासे य अभिवायमाणे। • हयपुव्वे तत्थ दण्डेहिं लूसियपुव्वे अपुण्णेहिं॥8॥ छाया-नोसुकरमे तदेकेषां, नाभिभाषते च अभिवादयतः। .. हतपूर्वः तत्र दण्डैः लूषितपूर्व अपुण्यैः॥ ___पदार्थ-तत्थ-उस अनार्य देश में।. अपुण्णेहिं-पुण्यहीन अनार्य मनुष्य। दण्डेहि-दंडों से। हयपुव्वे-पहले घायल करते। लूसिय पुव्वे-बालों को खींच कर या अन्य तरह उन्हें कष्ट देते, फिर भी भगवान महावीर। अभिवायमाणे नाभिभासे-अभिवादन करने वाले व्यक्ति पर प्रसन्न होकर उससे बात नहीं करते। य-और जो व्यक्ति अभिवादन नहीं करता, उस पर क्रोध नहीं करते, इसलिए। एयं-यह भगवान की साधना। एगेसिं-कई एक व्यक्तियों के लिए। णो सुकरं-सुगम नहीं थी। मूलार्थ-जब भगवान महावीर अनार्य देश में विहार कर रहे थे, उस समय पुण्यहीन अनार्य व्यक्तियों ने भगवान को डंडों से मारा-पीटा एवं उन्हें विविध कष्ट दिए; फिर भी वे अपनी साधना में संलग्न रहे। वे अभिवादन करने वाले व्यक्ति पर प्रसन्न होकर न तो उससे बात करते थे और न तिरस्कार करने वाले व्यक्ति पर क्रोध ही करते थे। वे मान एवं अपमान को समभाव पूर्वक सहन करते थे। अतः प्रस्तुत अध्ययन में उल्लिखित भगवान महावीर की साधना जनसाधारण के लिए
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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