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________________ नवम अध्ययन, उद्देशक 1 815 बातों पर ही ध्यान दिया। वे सदा-सर्वदा समभावपूर्वक अपने आत्म-चिन्तन में संलग्न रहते थे। इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- जे के इमे अगारत्था, मीसीभावं पहाय से झाइ। पुट्ठोवि नाभिभासिंसु गच्छइ नाइवत्तइ अंजू॥7॥ छाया- ये केचन इमे अगारस्था मिश्रीभावप्रहाय स ध्यायति। __ पृष्टोऽपि नभ्यभाषत, गच्छति नातिवर्तते ऋजुः॥ पदार्थ-जे-यदि। के-कभी भगवान। अगारत्था-गृहस्थों से युक्त मकान में ठहरते थे। तब से वे। इमे-इन। मीसी भावं-मिसीभाव को। पहाय-छोड़कर। झाइ-धर्म ध्यान ध्याते थे अतः। पुट्ठोवि-वे पूछने या न पूछने पर भी। नाभिभांसिंसु-नहीं बोलते थे। वे सदा मोक्ष मार्ग की साधना के लिए ही। गच्छइ-गमन करते थे। नाइवत्तइ-वे किसी के कहने पर भी मोक्ष मार्ग का त्याग नहीं करते थे। अंजू-इसलिए वे ऋजु-सरल थे। मूलार्थ-गृहस्थों से मिश्रित स्थान को प्राप्त होने पर भी भगवान मिश्रभाव को छोड़कर धर्म-ध्यान में ही रहते थे। गृहस्थों के पूछने या न पूछने पर भी वे नहीं बोलते थे। अपने कार्य की सिद्धि के लिए गमन करते थे और किसी के कहने पर भी मोक्षमार्ग या आत्मचिन्तन का त्याग नहीं करते थे अथवा ऋजु परिणामी भगवान संयममार्ग में विचरते रहते थे। हिन्दी-विवेचन भगवान महावीर प्रायः जंगल में या गांव के बाहर शून्य स्थानों में ठहरते थे। कभी वे परिस्थितिवश गृहस्थों से युक्त स्थान में अथवा शहर या गांव के बीच भी ठहर जाते थे, परन्तु ऐसे स्थानों में भी वे उनके संपर्क से दूर रहते थे। वे अपने आत्म-चिन्तन में इतने संलग्न थे कि उनका मन गृहस्थों की ओर जाता ही नहीं था। यदि कोई व्यक्ति उन्हें बुलाने का प्रयत्न करता, उनसे कुछ पूछना चाहता तो भी वे नहीं बोलते थे। न उनकी बातों को सुनते थे और न उनका कोई उत्तर ही देते थे। इसका यह तात्पर्य नहीं कि गृहस्थों के शब्द उनके कर्ण-कुहरो में प्रविष्ट ही नहीं होते
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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